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ग़ज़ल नूर की-रोज़ जो मुझ को नया चाहती है

२१२२/११२२/२२ (११२)

रोज़ जो मुझ को नया चाहती है
ज़िन्दगी मुझ से तू क्या चाहती है?
.
मौत की शक्ल पहन कर शायद
ज़िन्दगी बदली क़बा चाहती है.
.
मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है.
.
इक  सितमगर जो  मसीहा भी न हो,
नई दुनिया वो  ख़ुदा चाहती है.
.
“नूर’ बुझ जाये चिराग़ों की तरह
क्या ही नादान हवा चाहती है. 
.
निलेश"नूर"

मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 1076

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2017 at 6:23pm

शुक्रिया आ.हेमंत जी 

Comment by Samar kabeer on May 2, 2017 at 6:19pm
जनाब निलेश 'नूर'साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
4थे शैर के सानी मिसरे में 'जमात'ग़लत है,सही शब्द है "जमाअत" देखियेगा ।
Comment by narendrasinh chauhan on May 2, 2017 at 5:24pm

बहुत बधाई इस सुन्दर  ग़ज़ल के लिए..

Comment by Hemant kumar on May 2, 2017 at 4:21pm
आदरणीय शेवगाँवकर सर बहुत बहुत बधाई इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए....
सादर....

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