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इन बन्ज़र आँखों में समंदर कल भी था और आज भी है
प्यास से मरना मेरा मुक़द्दर कल भी था और आज भी है

कोई इलाज-ए-ज़ख्म-ए-दिल वो ढूँढ न पाया आज तलक
बेबस का बेबस चारागर कल भी था और आज भी है

उसी राह से कितने मुसाफ़िर मंज़िल तक जा पहुँचे, मगर
उसी जगह पर राह का पत्थर कल भी था और आज भी है

अजल से लेकर आज तलक जाने कितनों की नींदें ठगीं
बदनामी का दाग़ चाँद पर कल भी था और आज भी है

दैर-ओ-हरम,दश्त-ओ-सहरा में मिलता भी कैसे उनको
वो जो बशर के दिल के अंदर कल भी था और आज भी है

वक़्त का मरहम भी "जय" इसको भरने में नाक़ाम रहा
दिल पे निशान-ए-ज़ख्म-ए-नश्तर कल भी था और आज भी है

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by आशीष यादव on February 9, 2017 at 7:44pm
Fir se padhne ka man hua. Fir se padha. Lekin Fir se hua. Umda ghazal.
Comment by Samar kabeer on February 8, 2017 at 7:30pm
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के सानी मिसरे पर जनाब मिथिलेश जी का सुझाव बहतरीन है ।
Comment by Gurpreet Singh jammu on February 8, 2017 at 5:44pm
bahut achchi gqzal jaynit ji
Comment by Mohammed Arif on February 8, 2017 at 5:34pm
आदरणीय जयनित जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल, दिली मुबारक़बाद कुबूल करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 8, 2017 at 4:25pm

आदरणीय जयनित जी, लाजवाब ग़ज़ल कही है. इस रदीफ़ ने मुग्ध कर दिया. इस शानदार ग़ज़ल पर दिल से दाद. इस मिसरे में अटपटा सा लगा तो इसे यूं गुनगुना रहा हूँ-

//प्यासा रहना मेरा मुकद्दर कल भी था और आज भी है //

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 8, 2017 at 3:43pm

भाई जय्नित जी इस रचना के लिए हार्दिक बधाई..हर शेर उम्दा है इस राचन पर ढेर सारी बधाई स्वीकार करें सादर
मगर प्यास ही मेरा मुक़द्दर कल भी था और आज भी है...प्यास और था का होना थोडा कंफ्यूज कर रहा है अन्यथा मत लीजियेगा

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