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ये अश्क ...

नहीं होता
चेहरा
दुःख का
कोई

नहीं होती उम्र
मौत की
कोई

ज़िन्दगी
खुशियों का
आसमां नहीं

ग़मों की
धूप है

ज़िन्दगी की धूप में
ख़ुशी तो बस
छाया का नाम है
पल भर का सुकून है
फिर गमों की
दास्तान है

यादों के
खंज़र हैं
कुछ आँखों से
बाहर हैं
कुछ आँखों के
अंदर हैं
कह गए
बह के
और
कुछ अभी
दिल में
अनकहे समंदर हैं

कैसे
जुलाहे हैं हम
मरीचिका सी
चमकती किरणों से
सुखों की
चादर बुनते हैं
दुखों की चारपाई पे
आंसुओं की
झीनी चादर ओढ़े
अंदर ही अंदर
भीगते हैं
अकेले

ज़िन्दगी का
यही तो मुख़ौटा है
अंदर कुछ
और बाहर
कुछ होता है
समेट लेता है
अपने में
हर ग़म
जाने कैसे
दिखने में
यूँ साँसों की देहरी पे

ज़िन्दगी का 

ये अश्क 
बहुत
छोटा होता है

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on January 27, 2017 at 2:21pm

आदरणीय  Samar kabeer जी प्रस्तुति के भावों अपना आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।

Comment by Samar kabeer on January 25, 2017 at 8:48pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,आपने अश्कों की अच्छी लड़ी बनाई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sushil Sarna on January 25, 2017 at 7:31pm

आदरणीय बृजेश जी प्रस्तुति को अपने मधुर शब्दों से मान देने का शुक्रिया।

Comment by Sushil Sarna on January 25, 2017 at 7:31pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी प्रस्तुति के भावों अपना आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 25, 2017 at 7:21pm
वाह आदरणीय बहुत सुन्दर कविता मन्त्र मुग्ध हूँ...

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2017 at 6:48pm

आदरणीय सुशील सरना सर, सुख-दुःख और जीवन के इर्द-गिर्द रची इस भावाभिव्यक्ति पर हार्दिक बधाई. सादर 

कृपया ध्यान दे...

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