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बदले-बदले लोग

============

 

बहुत दिन हो गए,

हमने नहीं की फिल्म की बातें।

न गपशप की मसालेदार,

कुछ हीरो-हिरोइन की।

न चर्चा,

किस सिनेमा में लगी है कौन सी पिक्चर?

 

पड़ोसी ने नया क्या-क्या खरीदा?

ये खबर भी चुप।

सुनाई अब न देती साड़ियों के शेड की चर्चा।

कहाँ है सेल, कितनी छूट?

ये बातें नहीं होती।

 

क्रिकेटी भूत वाले यार ना स्कोर पूछे हैं।

न कोई जश्न जीते का,

न कोई शोक हारे तो।

 

इधर बच्चें भी छोटा भीम जैसे भूल बैठे हैं।

कि अब तो मॉल का भी गेम वाला जोन तनहा है।

सुबह की सैर में

तबियत कहाँ है ख़ास बातों में?

हँसी या छेड़खानी भी नदारद है मरासिम से।

 

यहाँ बच्चे, जवां, बूढ़े, सहेली, यार ही सारे;

सभी मशगूल हैं,

चिंताएं ख़ुद सिर पर उठाने में।

यहाँ अब मीडिया के साथ सोशल मीडिया घायल।

 

कोई है पक्ष में,

कोई खड़ा प्रतिपक्ष में लेकिन

सभी की बात का मुद्दा वही रहता है अक्सर ही।

किसी इक शख्स में मसरूफ है अहले-वतन यारब।

नहीं जो आदमी पूरा,

बनाया है ख़ुदा उसको।

 

मेरे घर में करें बच्चे,

सियासत की अजब बातें।

कहाँ खोई है,

बीवी की हँसी की,

प्यार की बातें।

कि

दफ्तर हो या यारों की हो महफ़िल,

बस यही आलम।

 

लगे है-

ज़िन्दगी को लोग जीना भूल बैठे हैं।

कि अब अलमस्त रहने के बहाने भूल बैठे हैं।

सभी की है नज़र,

आखिर कहाँ खोए हैं अच्छे दिन?

कहाँ जम्हूरियत के नाम पर चाहे थे ऐसे दिन?

 

यहाँ बदला वतन कितना?

नहीं मालूम है लेकिन।

यकीनन ही,

वतन में बदले-बदले लोग रहते हैं।

 

-------------------------------------------------------------

(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 25, 2016 at 6:26pm

आ० मिथिलेश जी  लेखनी का दम इसे कहते है  आपने देश का आइना उतार कर रख दिया . बहुत बहुत बधाई .

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 25, 2016 at 11:26am
वाह आदरणीय बहुत सुन्दर सार्थक
Comment by Seema Singh on December 24, 2016 at 8:10pm
आपकी रचना में कुछ तो बात है आदरणीय मिथलेश जी, हमारे जैसे काव्य में कोरे लोग भी कह उठे वाह क्या बात है! मन को छूती रचना पर बधाई।
Comment by pratibha pande on December 24, 2016 at 9:29am

लगे है-

ज़िन्दगी को लोग जीना भूल बैठे हैं।

कि अब अलमस्त रहने के बहाने भूल बैठे हैं।

सभी की है नज़र,

आखिर कहाँ खोए हैं अच्छे दिन?

कहाँ जम्हूरियत के नाम पर चाहे थे ऐसे दिन?.....खुश रह पाने की आदात का छूटना किसी भी सामयिक घटना से ज़्यादा हर दिन पैर फैलाते  आधुनिकरण को  भी जाता है ..  आपकी जानी पहचानी शैली में सशक्त रचना    हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश जी 

 

Comment by आशीष यादव on December 23, 2016 at 1:47am
Samyik warnan. Jwalant mudda.
Sundar kawita.
Badhai swikar karen.
Comment by नाथ सोनांचली on December 22, 2016 at 7:17am
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सादर अभिवादन, विगत 42 दिन से जो देश में सूरत हाल हुई है, उसकी परिपेक्ष्य में बहुत ही खुबसूरत कविता, इस रचना के लिए कोटिश बधाइयाँ निवेदित हैं
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 21, 2016 at 8:20pm
वाह आदरणीय मिथिलेश सर । बहुत ख़ूब हुई है यह कविता । हार्दिक बधाई ।
Comment by Samar kabeer on December 21, 2016 at 4:56pm
जनाब मिथिलेश वामनकर साहिब आदाब,वाह बहुत ख़ूब, इसे कहते हैं कुछ न कहकर सब कुछ कह देना,यही कविता का रस है, बहुत ही सुंदर तरीक़े से आपने वतन के हालात पर तब्सिरा किया है,इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से देरों दाद व् मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

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