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वागीश्वरी सवैया  [सूत्र- 122×7+12 ; यगण x7+लगा]


करो नित्य ही कृत्य अच्छे जहां में सखे! बोल मीठे सभी से कहो।।
दिलों से दिलों का करो मेल ऐसा, न हो भेद कोई न दुर्भाव हो।।
बनो जिंदगी में उजाला सभी की, सभी सौख्य पाएं उदासी न हो।।
रखो मान-सम्मान माँ भारती का, सदा राष्ट्र की भावना में बहो।।



मत्तगयन्द सवैया [सूत्र-211×7+22 ; भगणx7+गागा]

यौवन ज्यों मकरन्द भरा घट, और सुवासित कंचन काया।
भौंह कमान कटार बने दृग, केश घने सम नीरद-छाया।।
देख छटा मुख की अति सुंदर, पूनम का रजनीश लजाया।
ओष्ठ खिली कलियाँ अति कोमल, देख हिया अलि का हरसाया।।

रचना-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 30, 2016 at 7:22pm

आ० सौरभ जी , मेरे भाव में कोई  कमी नहीं है और  झांसा शब्द मेरे शब्द्कोश  में नहीं है .  वाट्स की आपकी खिन्नता संभवत मेरे कारण तो नहीं होगी . मुझसे कोई  अपराध बन पडा  हो तो मुझे अवश्य बताएं,  मैं अवश्य क्षमा चाहूँगा  .मेरा मत है कि योग्यता सदैव समादृत होनी चाहिये . मैं इसी सिद्धांत पर चलता हूँ . दिनकर जी की  काव्य पंक्ति आप को समर्पित है -                                                                                                                                       पूज्यनीय को पूज्य मानने में जो बाधाक्रम है  ,

वही मनुज का अहंकार है वही मनुज का भ्रम है . ---- सादर .,

Comment by रामबली गुप्ता on October 29, 2016 at 6:12am
आद0 गोपाल नारायन जी आपकी आत्मीय प्रशंसा से दिल गदगद हो गया है। बहुत बहुत हार्दिक आभार। मत्तगयंद का अंतिम पद मुझे भी कुछ कमजोर लग रहा है। मैं इसे मूल में सुधार लूँगा। अपना आशीष बनाये रखें।सादर
Comment by रामबली गुप्ता on October 28, 2016 at 10:38pm
दिल से आभार भाई सतविंदर कुमार जी
Comment by Samar kabeer on October 27, 2016 at 11:05am
जी,बह्र का ज्ञान होने के बाद मेरी मुश्किल अस्सी फ़ीसदी कम हो जाती है,कल से इसी प्रयास में लगा हूँ,इधर मुशायरा नज़दीक आ गया है,इस कारण सवैया आज न पोस्ट कर पाऊंगा,मुशायरा ख़त्म होने के बाद पहला काम यही करना है ,आपने जो विश्वास मुझ पर किया है उस पर खरा उतरने का भरसक प्रयास करूंगा,आपके स्नेह और मार्गदर्शन का पुनः धन्यवाद ।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 27, 2016 at 9:25am
आदरणीय रामबली भाई सादर!दोनों सवैया छंदों के लिए बहुत बहुत बधाई।आपकी यह कृति एक स्वस्थ चर्चा की साक्षी बनीं है जो निस्संदेह हमारे लिए भी लाभदायक है।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 26, 2016 at 11:10pm

आदरणीय समर भाई साहब, आप यदि छन्द का मर्म समझ गये, तो आपको बहर और छान्दसिक विन्यास में कहीं कोई अंतर नहीं दिखेगा. बस इसी भाव को आत्मसात करने भर की देर है. हम सभी को आपकी लगन और निष्ठा पर पूरा विश्वास है. आप सवैया ही नहीं अन्य वर्णिक छन्दों पर भी उतनी गहराई से रचनाकर्म कर सकेंगे. ज्ञात हो, कि ग़ज़ल का वैन्यासिक व्यवहार भी वर्णिक छन्दों का ही होता है.

सादर शुभकामनाएँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 26, 2016 at 11:05pm

आदरणीय गोपाल नारायनजी, आप और समस्त सहयोगियों से करबद्ध ही नहीं, अब दण्डवत प्रार्थना है कि मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए. बहुत गुरु और चेला आदि का झांसा हो गया. जो इस तरह की संज्ञा से कुप्पा हों, उन्हें यह संज्ञा मुबारक़ हो. जैसा कुछ वाट्स-ग्रुप में बरत दिया गया, उतने से ही मैं संतृप्त हो चुका हूँ. अलबत्ता, ओबीओ पर सभी सहयोगी और सहधर्मी हैं. इसी भाव की इज़्ज़त रखें हम, जीवन बीत जायेगा.

सादर प्रणाम.

Comment by Samar kabeer on October 26, 2016 at 8:35pm

जनाब सौरभ पाण्डेय जी,छन्द के बारे में कहूँ तो ये सही है कि इसकी प्रेरणा मुझे आप ही से मिली है,और जितना भी इसमें सीख पाया हूँ उसमें आपका मार्गदर्शन शामिल है,अब सवैया छन्द की तरफ़ क़दम बढ़ा रहा हूँ,उम्मीद नहीं पूरा यक़ीन है कि इसमें भी आपको और मंच को कामयाब हो कर दिखाऊंगा,आप मेरे दिल की बात बख़ूबी समझ लेते हैं,बस आपका आशीर्वाद चाहिये इस मैदान में भी ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 26, 2016 at 7:31pm

आ ० राम बली जी , आप छंद रचना करें , सवैया रचे , बहुत साधुवाद हमारी पुरानी  परम्परा भी कायम रहे आवश्यक है . इसलिए मैं आपका फैन हूँ . आपकी रचना पर आ० सौरभ जी ने विस्तार से टिप्पणी की और वह गुरु वाणी है . शिल्प को लेकर उनकी चिंता भी दिखती है जो वाजिब है . आपकी छंद रचना अच्छी है  वागीश्वरी में यदि कहो बहो के साथ ही रहो सहो  अहो गहो होता तो कितना सुन्दर होता . मत्तगयंद  की आख़िरी  पंक्ति में ओष्ठ का क्या औचित्य है जैसा छंद व्यवहृत था उसमे होंठ शब्द फिट बैठता  देख हिया अली का हर्षाया --- अलि  के प्रयोग से तो आपकी सारी भूमिका ही गड़बड़ा गयी अगर केवल अंतिम पंक्ति प्रासंगिक रह गयी , यदि  ऐसा कहें कि ----  काम ने साज अनूप सजाया  ---तो शायद अधिक  उपयुक्त हो और आप इससे भी बेहतर सोच सकते हैं . आपके प्रयास की सराहने करते हुए पुनः शुभ शुभ . सादर

Comment by रामबली गुप्ता on October 26, 2016 at 6:36pm
आद0 समर भाई साहब सराहना के लिए हार्दिक आभार। सवैया छंद पर आपकी उत्सुकता और अभ्यास के प्रति लगन से दिल आशान्वित है। आपके सवैये की प्रतीक्षा रहेगी।सादर

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