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ग़ज़ल - खंज़र वाले हाथ कभी काँपे क्या उनके ? ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  22   बहरे मीर

फोकट की ये बातें हमको मत गिनवाओ

नकली उख़ड़ी सांसें, हमको मत गिनवाओ

 

खंज़र वाले हाथ कभी काँपे क्या उनके ?

आज हुई प्रतिघातें, हमको मत गिनवाओ

 

वर्षों से सूरज का ख़्वाब दिखाते आये

अब तो काली रातें हमको मत गिनवाओ

 

शहर शहर को तोड़ तोड़ के गाँव करो तुम

बची खुची चौपालें हमको मत गिनवाओ

 

फुलवारी के बीच बनी थी हर पगडंडी

कोलतार की सड़कें हमको मत गिनवाओ 

 

क्षितिज छू रहीं बाहों का विस्तार कहाँ है

सिमटी लूली बाहें , हमको मत गिनवाओ  

 

कहीं शरारे दौड़ न जायें फिर नस नस में

इतिहासों की घातें ,हमको मत गिनवाओ

 

प्यासे को तो रोज़ चाहिये पानी यारो

मरु थल में सौगातें, हमको मत गिनवाओ

 

सरहद पार के झूठे रिश्ते आम हो गये

अब तो उनकी चाहें हमको मत गिनवाओ

***************************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 5, 2016 at 11:22am

आदरणीय आशुतोष भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।

इस बहर मे मुख्य बात है , लय ।  आप 22  को  112  , 121 , 211  लय को साधते हुये कर सकते हैं , कहीं कहीं 1212 ( अगर- मगर ) के उदाहरण भी मिलते हैं , बस लय टूटना नही चाहिये । मात्रा आप गिरा भी सकते हैं । मेरे खयाल से यही आप पूछना चाहते थे ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 5, 2016 at 11:16am

आदरनीया राजेश जी , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका ह्र्दय से आभार

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 4, 2016 at 2:46pm

आदरणीय गिरिराज भाईसाब बहरे मेरे पर एक से एक उम्दा  ग़ज़लें लिख रहे हैं आप ..भाई साब जिज्ञासा बश पूछ रहा हूँ २२  १२१ ११२ २११ के क्रम में क्या यह जरूरी है २२ की शर्त इन तीनो आप्शन से पूरी हो  शहर शहर २ १ २ १             २  २२  बात को पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ   क्या  २२   २२ की शर्त हर जगह पूरी की जाना अनिवार्य है  या ओवर आल २२ २२ २२ मान लिया जाए ..मैं इस बिंदु पर बार बार खुद अटक जाता था इसलिए निवेदन के साथ पूछ रहा हूँ  इस शानदार रचना पर हार्दिक बधाई और सादर प्रणाम के साथ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 3, 2016 at 6:28pm

फुलवारी के बीच बनी थी हर पगडंडी

कोलतार की सड़कें हमको मत गिनवाओ ------वाह्ह्ह्हह 

बहुत  उम्दा ग़ज़ल हुई आद० गिरिराज जी बहुत बहुत बधाई |

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 3, 2016 at 11:41am

आदरणीय मनोज भाई , सराहना के लिये आपका आभार ।

Comment by मनोज अहसास on August 3, 2016 at 10:38am
बहुत खूब ग़ज़ल हुई है आदरणीय
वाह वाह

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 3, 2016 at 9:31am

आदरनीया कल्पना जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 2, 2016 at 10:23pm
क्षितिज छू रहीं बाहों का विस्तार कहाँ है
सिमटी लूली बाहें , हमको मत गिनवाओ

कहीं शरारे दौड़ न जायें फिर नस नस में
इतिहासों की घातें ,हमको मत गिनवाओ

प्यासे को तो रोज़ चाहिये पानी यारो
मरु थल में सौगातें, हमको मत गिनवाओ वाह वाह खूब कहा है आदरणीय । हार्दिक बधाई ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 2, 2016 at 6:47pm

आदरणीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ।

आदरणीय आपने सही कहा , पिछली 8 -10 गज़लें बहरे मीर मे कही है मैने । दर अस्ल बात ये थी कि मुझसे बहरेमीर मे लय साधने मे कुछ न कुछ कमी रह जाती थी , इसलिये मैने आ. सौरभ भाई जी से इक तरफा वादा किया था , एक प्रतिक्रिया मे , कि आगे कुछ गज़लें लगातार बहरे मीर मे ही कहूँगा । बस इसीलिये इस बहर मे कह रहा हूँ । अभी 5 -7 और बाक़ी है पोस्ट करने के लिये ।

Comment by Samar kabeer on August 2, 2016 at 6:05pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,वाह वाह बहुत ख़ूब क्या शानदार ग़ज़ल हुई है मज़ा आ गया,आजकल आप मीर साहिब की बहरों में ज़ियादा ग़ज़लें कह रहे हैं ,ख़ेर इस ग़ज़ल के लिये शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

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