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क़िताब ख़ास लिखी जाएगी जो आज कोई (ग़ज़ल 'राज ')

1212  1122  1212  112/22

बह्र –मुजतस मुसम्मन मख्बून मक्सूर

 

तनाव से ही सदा टूटता समाज कोई

लगाव से ही सदा फूलता रिवाज कोई

 

पढ़ेगी कल नई पीढ़ी उन्हीं के सफ्हों को

क़िताब ख़ास लिखी जाएगी जो आज कोई

 

न ख़्वाब हो सकें पूरे कहीं बिना दौलत

बना सकी न मुहब्बत गरीब ताज कोई

 

सियासतों में बगावत नई नहीं यारों

कभी चला कहाँ आसान राजकाज कोई

 

सभी मिलेंगे यहाँ छोड़कर शरीफों को

कोई फरेबी यहाँ और चालबाज कोई  

 

नचा रहे सभी एक  दूसरे  को यहाँ  

बजा रहा कोई ढपली कहीं पे साज कोई  

 

पँहुचते ही नहीं पैसे गरीब तक पूरे

कमाई ले उड़े जब बीच में ही बाज़ कोई

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 14, 2016 at 10:11am
आदरणीया राजेश जी कमाल की ग़ज़ल हुयी है जिंदगी केकडवे सच को बखूबी उकेरा है आपनर हार्दिक बधाई स्वीकार करे सादरFG
Comment by Rahila on July 14, 2016 at 8:57am
बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुयी आदरणीय राजेश दीदी! किसी एक शेर की तारीफ करना मुश्किल होगा ।सभी लाज़बाब हैं।हार्दिक बधाई।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 13, 2016 at 6:09pm

आद० सतविन्द्र भैया ,आपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 13, 2016 at 6:08pm

आ० शिज्जू भैया ,आपका बहुत- बहुत आभार उन्हें ठीक कर लूँगी सफहों शब्द ज्यादा सटीक होगा |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 13, 2016 at 6:07pm

आद० श्याम नारायण वर्मा जी ,आपका अतिशय आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 13, 2016 at 6:06pm

आद० समर भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लेखन सार्थक हो गया| आपकी इस्स्लाह सर आँखों पर मैं वरक का बहु  वचन वर्कों अर्थात  २२ ले लिया जबकि ११२ होना चाहिए ...मेरी गलती है इसे सफहों कर लूँगी | आपने सही कहा भाई जी छाते शेर के उला में हैं न जाने कैसे रह गया पोस्ट करने से पहले कई बार पढ़ी भी | मूल  पोस्ट  में सुधार कर लिया है इधर भी कर लूँगी |

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on July 13, 2016 at 5:00pm
उम्दा ग़ज़ल!नमन आदरणीया राजेश दीदी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 13, 2016 at 4:50pm
आ. राजेश दीदी अच्छे अश'आर हुये है,
जनाब समर साहब से मैं इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ,दूसरे शे'र में वर्कों की जगह सफ़्हों या पन्नों करना मुनासिब होगा।
Comment by Shyam Narain Verma on July 13, 2016 at 3:48pm

बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को | सादर 

Comment by Samar kabeer on July 13, 2016 at 3:38pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,ग़ज़ल बहुत उम्दा और शानदार हुई है, शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।
दूसरे शैर के ऊला मिसरे में "वर्क़ों" को "सफहों'करना मुनासिब होगा क्योंकि उर्दू में सही शब्द है 'वरक़'न कि "वर्क़" देख लीजियेगा ।
छटे शैर के ऊला मिसरे में एक शब्द टाइपिंग मिस्टेक से छूट गया है :-
"नचा रहे हैं सभी एक दूसरे को यहाँ"

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