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अक़लदाढ़(लघुकथा)राहिला

"यार रमेश!याद है परसों एक पंडित जी अपनी जमीन के किसी मसले को लेकर अपने कलेक्टर साहब से मिलने आये थे।"
"हाँ यार,क्या ओज था उस व्यक्ति के चेहरे पर।कोई भी प्रभावित हुए बगैर नही रह सकता था।मैंने तो खुद अपने बालक के बारे में पूछा था उनसे । ज्योतिष का खूब ज्ञाता था।"
"हाँ ,यही तो मैं बता रहा हूँ, अपने कलेक्टर साहब ! भी नहीं बच पाये।"
"मतलब अपनी तरह उन्होंने भी कुछ पूछा क्या? लेकिन आपको कैसे पता चला?"
"अपना रघु जिंदाबाद ,चाय पानी देने गया था अंदर, बस... ।"
"ऐसा क्या पूंछ लिया?जिसे बताने के लिये खासे उत्सुक दिख रहे हो।"
"बात ही ऐसी है, कहीं शुरू ,कहीं ख़त्म होगी।"
"यार बात को चबाओ मत।"
"तो सुनो कलेक्टर साहब को बुढ़ापे की फ़िकर हो चली जवानी में "वे तनिक और करीब आकर फुसफुसाते हुये बात को रहस्यमय बना के आगे बोले-"अरे वो जानना चाह रहे थे उनकी मृत्यु कैसे और किस हाल में होगी।"
"फिर क्या बोले पंडित जी?"
"पंडित जी बोले,महाराज आप तो राजा आदमी हो,आपके और आपके कुटुंब के क्या कहने।जैसे ठाठ से आपके पिता का बुढ़ापा गुजर रहा है वैसा ही आपका।और आप जैसे सुपुत्र को पाकर जैसे सुख में उनकी मृत्यु, वैसे आपकी।"
"ओहो....!!तभी कहूँ ऐसा क्या हुआ जिससे अचानक साहब की अक़लदाढ़ निकल आई ।इसलिये कल अपने पिताजी को वृद्धा आश्रम से वापस ले आये।"
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Rajendra kumar dubey on July 6, 2016 at 6:54am
आदरणीय राहीला जी में समझता हूँ की आपकी यह लघुकथा एक श्रेष्ठ श्रेणी में रखी जानी चाहिए।आपको हृदय से बधाई।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 5, 2016 at 5:34pm
लघुकथा का नायाब उदाहरण है, आपकी यह रचना। एक दम से "लघुकथा प्रतिमान"(Model of Short Story) प्रस्तुत कर दिया आपने।

2212 2212 2212 2212

औलाद सुख के वास्ते रहने शहर को जब चली।
तन्हा पिता रिसता रहा, जैसे पुराना घर कोई।।

चौखट पे है बैठी, विदा बेटे को दे थक हार कर।
अब तो चला जाता नहीं, बूढी हुई माँ आज ही।।

कैसे दिलासा दें उन्हें, है सोचती बूढ़ी बहुत।
वश में नहीं हैं शब्द औ रूकती नहीं बरसात भी।।
Comment by Sushil Sarna on July 5, 2016 at 4:48pm

ओहो....!!तभी कहूँ ऐसा क्या हुआ जिससे अचानक साहब की अक़लदाढ़ निकल आई ।इसलिये कल अपने पिताजी को वृद्धा आश्रम से वापस ले आये।"

वाह अादरणीया राहिला जी एक गंभीर विषय से रूबरू कराती इस मार्मिक, संदेशप्रद लघुकथा के लिए दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं।

Comment by TEJ VEER SINGH on July 5, 2016 at 12:54pm

हार्दिक बधाई राहिला जी! बहुत सुन्दर लघुकथा ! अकलदाढ़ का बेहद सटीक उदाहरण !

Comment by Rahila on July 5, 2016 at 12:17pm
बहुत, बहुत शुक्रिया आदरणीय अशोक सर जी!आपकी नजर मे रचना आई और आपने पसन्द भी की इसके लिए बहुत आभार ।सादर
Comment by Rahila on July 5, 2016 at 12:14pm
बहुत, बहुत शुक्रिया आदरणीया राजेश दीदी! आपको रचना पसंद आई मेरा सौभाग्य।सादर नमन
Comment by Rahila on July 5, 2016 at 12:12pm
बहुत,बहुतशुक्रिया आदरणीया नीता इतनी सुंदर टिप्पणी के लिए सादर आभार।
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 4, 2016 at 11:44pm

ओहो....!!तभी कहूँ ऐसा क्या हुआ जिससे अचानक साहब की अक़लदाढ़ निकल आई ।इसलिये कल अपने पिताजी को वृद्धा आश्रम से वापस ले आये।".......वाह ! सुंदर लघु कथा. आज इस सन्देश की समाज को बहुत आवश्यकता है. बहुत-बहुत बधाई.सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 4, 2016 at 8:40pm

अरे वाह बहुत मजेदार लघु कथा हुई मजा  आ गया पढ़ के |बहुत बहुत बधाई 

Comment by Nita Kasar on July 4, 2016 at 8:35pm
यार बात को चबाओ मत ,अक्लदाड का निकलना ये आपकी बेहद सारगर्भित प्रस्तुति है,काश सही समय पर हर बेटे की अक्लदाड निकल आये तो वृद्धाश्रमों की ज़रूरत ही ना होगी ।बधाईयां आपको आद०प्रिय राहिला जी ।

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