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गरीब होने का सुख /लघुकथा

 ईंट का आखिरी खेप सिर से उतार कर पास रखे ड्रम से पानी ले हाथ-मुँह धो सीधे उसके पास आकर खड़ा हो गया ।

" सेठ , अब जल्दी से आज का हिसाब कर दो "

" कल ले लेना इकट्ठे दोनों दिन की मजूरी ।"

" नहीं सेठ , आज का हिसाब आज करो , कल को मै काम आता या नहीं , भरोसा नहीं "

" मतलब "

" इस हफ्ते पाँच दिन काम किया ना , बहुत कमा लिया ,इतना ही काफी है । अब अगले हफ्ते ही काम पर आऊँगा ।"

" बहुत कमा लिया , हूँ ह ! इतनी-सी कमाई में क्या - क्या करोगे ?"

" क्या-क्या नहीं करूँगा यह पूछो सेठ " आँख चौड़ी करते हुए वह कह उठा  ।

" हम तुम्हारे तरह हवेली में रहकर दुखी में नहीं रहते । हम खुशी से जीने के लिए कमाते है । तुम्हारी तरह धन कमा कर जमा करने के लिए रोते - रोते जिंदगी बसर नहीं करते है । " सुनते ही वह झल्ला पड़ा ।

" तुम्हारे घर में भी तो बीवी ,बच्चे और उनकी पढ़ाई- लिखाई का खर्च होगा "

" अरे सेठ , वो सब भी है । गरीब होने का सुख तुम नहीं समझोगे " कहते हुए वह हँस पड़ा  ।

 " चलो , अब तुम्हीं समझा जाओ मुझे गरीब होने का सुख " उसके सुख से वह अब अनमना उठा था ।

 " देखो सेठ , हम सरकारी जमीन पर बने झुग्गी में रहते है । जहाँ पानी और बिजली फ्री है । बच्चे लोग सरकारी स्कूल में पढ़ते है जहाँ किताब, काॅपी, कपड़े के साथ एक वक्त का खाना भी फ्री में । घर का खर्चा , गरीबी रेखा का कार्ड है । अरे लालकार्ड ! " आँखों में आँखें डालकर फिर तैश में कहने लगा " तो अनाज से लेकर दूसरी सुविधा भी लगभग फ्री में "

" लेकिन तुमको ऐसा लगता है कि सरकारी स्कूल में पढ़कर तुम्हारे बच्चे होनहार बनेंगे ? " उस फटीचर का सुख अब असहनीय हो उठा था ।

" ओह सेठ, तुमको मालूम कि हम गरीब होनहार ही पैदा होते है। मेरा बेटा भी बड़ा होकर मजूरी करें और मस्त जिंदगी जिये, यही मेरा सपना है ।

" ऐसा क्यों सोचते हो "

" क्योंकि अगर स्कूल पास कर गया और कहीं सरकारी नौकरी लग गई तो बेड़ा ही गर्क हो जायेगा हमारा ।"

" अरे , उसके नौकरी करने से तो तुम सबका विकास होगा " वह कल्पना ही नहीं कर सकता था कि कोई स्वेच्छा से गरीब रहना पसंद करेगा ।

" क्या खाक विकास होगा ! सरकारी नौकरी , सरकारी क्वार्टर , क्वार्टर में रहन - सहन का खर्चा । फिर हम भी तुम्हारी लाईन पर आ जायेंगे और तुम्हारे कथित विकास के साथ दिन - रात का चैन भी खो देंगे । फिर तो गया ना " गरीबी का सुख " पानी में ।

दोनों की  बातों को  चुपचाप सुनती  हुई तनी हुई हवेली अब धीरे -धीरे सिकुड़ती जा रही थी ।  

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by kanta roy on June 16, 2016 at 8:47am
आपने रचना की संवेदनशीलता को समझ कर कथा पसंद किया है जो मेरे लिए सुखकर हुआ । तहेदिल आभार आपको आदरणीय आशुतोष जी ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 15, 2016 at 7:02pm
आदरणीया कान्ता राय जी, यदि कथा की अंतिम पंक्ति के स्थान पर कुछ और हो, तो? विचार कीजिएगा। 'हवेली के सुख' या 'सेठ जी के सुख' से संबंधित कोई तीखी पंचपंक्ति/डंकपंक्ति हो सकती है क्या?
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 15, 2016 at 6:42pm
बहुत बढ़िया कथानक पर सरकारी सुविधाओं से लाभान्वित होते हुए अपनी सीमा में सुखी जीवन जीते एक वर्ग विशेष पर रौशनी डालती बढ़िया प्रस्तुति के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीया कान्ता राय जी। बेहतर होता यदि कथा में 'ग़रीब' शब्द चार-पांच बार न आता और शीर्षक वाले शब्द 'ग़रीब/ग़रीबी का सुख' दो बार नहीं आता, बल्कि अनौपचारिक भाषा शैली के संवादों में कथ्य अप्रत्यक्ष रूप से स्वत: उभरता चलता। महज मेरे विचार मात्र।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 5:42pm

आदरणीयया कांता जी , आज का सच है ये , और शायद हमेशा से यही सच रहा हो , जो जितने कम में संतुष्ट है वो उअतना सुखी । और फिर सरकारी योजनायें भी तो या ऊपर वाले के लिये बनती हैं या सबसे नीचे वालों के लिये , मध्यम हमे शा परेशान रहता है । अच्छी लगी आपकी कथा ।
 ईंट का आखिरी   --  या -- ईंट की आखरी खेप

कल को मै काम आता या नहीं , भरोसा नहीं    --      कल को मै काम पर आ पाया या नही , भरोसा नही  ।  देख लीजियेगा ।

Comment by maharshi tripathi on June 15, 2016 at 5:05pm
आ.कान्ता जी,आज के समय जितना तनाव मुक्त गरीब रहते हैं,उतना शायद ही कोई हो ये सिर्फ कहानी या किताबी बाते नही है,बल्कि आधुनिक समय की सच्चाई है,जो सुविधाएँ सरकार दे रही है उसमे सबसे ज्यादा परेशान हम मध्यम परिवार वाले हैं,लगभग ऐसी ही आज की व्यवस्था और मध्यम वर्गीय लोगों की स्थिति पर एक लघुकथा इसी मंच पर पढी थी,बजट

आपने लघुकथा को एक अलग ढंग से प्रस्तुत किया है,हार्दिक बधाई आपको !!!!
Comment by Rajendra kumar dubey on June 15, 2016 at 3:23pm
फ्रि सुविधा आदमी को निकम्मा बना देती है सही चित्रण किया आपने ।अच्छी लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय कान्ता राय जी
Comment by Shyam Narain Verma on June 15, 2016 at 10:34am
सुन्दर लघुकथा के लिये आपको बधाई ॥ सादर
Comment by Manan Kumar singh on June 15, 2016 at 6:57am
अच्छा है यह भी अहसास,एक तरह से सुख का।तथ्य और कथ्य के सामंजस्य के लिए बधाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 14, 2016 at 8:08pm

अच्छी लघु कथा बनी है कांता जी सच भी है गरीब पत्थरों पर भी गहरी आराम की नींद सोता है जबकि अमीर गद्दों पर भी करवटें बदलता रहता है |हार्दिक बधाई आपको 

Comment by pratibha pande on June 14, 2016 at 7:27pm

पञ्च लाइन में एक मजदूर के मुख से 'कथित विकास '  शब्द कुछ अटपटा लग रहा है,बाकी कथा   कसावट के साथ है ,विषय  आपने अच्छा चुना है    सच है आज कल गरीबी रेखा का कार्ड  और दूसरी सहूलियतों को लेकर ये वर्ग सचेत हो गया है   हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको इस रचना पर आदरणीया कांता जी  

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