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ख्वाब-ऐ-बशर ...

आज फिर
किसी का चूल्हा
उदास ही
बिन जले सो गया।

आज फिर
सांझ के दामन पे
भूख लिख गया कोई।

आज फिर
पेट की आग
झूठी आशा की बर्फ से
ठंडी कर
सो गया कोई।

आज फिर
कटोरे से
सिक्कों की आवाज़
रूठी रही।

आज फिर
खारा जल
पकी दाढ़ी को
धोता रहा।

आज फिर
निराशा का कफ़न ओढ़े
बिन साँसों के
सो गया कोई।

आज फिर
अग्नि को
जीवन का
अंतिम क्षण भी
दे गया कोई।

आज फिर
ज़िंदगी की खूंटी पर
तार तार हुए
संघर्ष के पैराहन
टांग गया कोई।

आज फिर
किसी क़बा के पैबंद
ज़ीस्त को चिढ़ाते रहे
सिलसिला चलता रहा
सहर होती रही
सांझ ढलती रही
कोई जान भी न पाया
स्याह तारीकियों की
ग़ुम दीवारों पर
आज फिर
इक ख्वाब-ऐ-बशर
लगा गया कोई।

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 415

Comment

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Comment by Sushil Sarna on May 16, 2016 at 1:46pm

आदरणीया राहिला जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय सम्मान देने का दिल से शुक्रिया।

Comment by Sushil Sarna on May 16, 2016 at 1:45pm

आदरणीय तस्दीक साहिब प्रस्तुति पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया का तहे दिल से शुक्रिया।

Comment by Rahila on May 16, 2016 at 9:26am
बहुत खूब लिखते हैं आप आदरणीय सुशील सर जी! इस शानदार रचना के लिये खूब, खूब बधाई ।सादर
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 15, 2016 at 9:34pm

मोहतरम जनाब सुशील सरना  साहिब ,दिल की गहराइयों में जज़्बाती रचना  के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं

Comment by Sushil Sarna on May 14, 2016 at 4:15pm

आदरणीय रामबली गुप्ता जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार। 

Comment by रामबली गुप्ता on May 13, 2016 at 3:59pm
आपके प्रस्तुतियों की गूढ़ता सदा ही प्रभावित करती है आदरणीय। ढेरों बधाई स्वीकार करें।

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