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वक्त का साया रहे जब - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' ( ग़ज़ल )

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खुद के  होने  का  जरा  भी  वो पता देता नहीं
अब किसी  को भी  गुनाहों की सजा देता नहीं /1

देवता  तो थे  बहुत  पर ढल गए बुत में सभी
क्यों कहूँ तुझसे की उनको क्यों सदा देता नहीं /2

मर  रही  इंसानियत  है  और  रिश्ते तार तार
क्यों कयामत  का भरोसा  अब खुदा देता नहीं /3

हर तरफ विष देखता हूँ  सुर असुर सब हैं लिए
क्या समंदर मथ भी लें तो अब सुधा देता नहीं /4

वक्त का  साया  रहे जब  मत निठल्ले बैठना
वक्त भी  मौका  सभी को  हर  दफा देता नहीं /5

साधु हो या फिर भिखारी आस कुछ तो रखता है
बेसबब  कोई   किसी  को  भी   दुआ  देता  नहीं /6

पाँव  भी  कहने  लगे  इस  राह से  उकता के यूँ
पथ ‘मुसाफिर‘ क्यों भला तू अब नया देता नहीं /7



मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 17, 2015 at 11:32am

आ० भाई सौरभ जी अभिनन्दन . मुझे तनाफ़ुर का दोष के विषय में ध्यान नहीं था इसका ज्यान कराकर मार्गदर्शन करने हेतु धन्यवाद . क्या इस मिसरे को इस प्रकार लिखने से यह दोष दूर हो जायेगा -

देवता  यू तो   बहुत  पर ढल गए बुत में सभी

मार्गदर्शन कीजियेगा  आभार सहित

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 17, 2015 at 11:28am

आ० भाई मिथिलेश जी स्नेह के लिए आभार l


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 10, 2015 at 1:59am

प्रस्तुति केलिए धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण धामीजी.

वैसे, कुछ अश’आर में जिस तरह से मात्रा पतन हुआ है उससे शेर का मिसरा असंयत होगया है. 

देवता  तो थे  बहुत  पर ढल गए बुत में सभी .. इस मिसरे में अनुप्रास का बढिया प्रयोग अवश्य हुआ है लेकिन्ब अरुज़ की नज़र से मिसरे में  तनाफ़ुर का दोष अवश्य है. वाक्य उच्चारण में असहजता महसूस हो रही है. 

हार्दिक धन्यवाद व शुभकामनाएँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2015 at 4:17pm

आदरणीय लक्ष्मण सर जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 9, 2015 at 11:33am

आ० भाई समर जी , इस उत्सावर्धक प्रतिक्रिया व स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 9, 2015 at 11:32am

आ० भाई गोपालनारायण जी , ग़ज़ल पर उपस्थिति से मन बढ़ने के लिए हार्दिक आभार .

Comment by Samar kabeer on December 7, 2015 at 10:25pm
जनाब लक्ष्मण धामी जी,आदाब,बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने इस मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 7, 2015 at 8:05pm

साधु हो या फिर भिखारी आस कुछ तो रखता है
बेसबब  कोई   किसी  को  भी   दुआ  देता  नहीं /6

पाँव  भी  कहने  लगे  इस  राह से  उकता के यूँ
पथ ‘मुसाफिर‘ क्यों भला तू अब नया देता नहीं /7----बहुत बढ़िया धामी जी.

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