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अतुकांत - काँव काँव से दीवारें नहीं गिरती ( गिरिराज भंडारी )

सच है 

कि, प्रकृति स्वयं जीवों के विकास के क्रम में

जीवों की शारिरिक और मानससिक बनावट में

आवश्यकता अनुसार , कुछ परिवर्तन स्वयं करती है
चाहे ये परिवर्तन करोड़ों वर्षों में हो

इसी क्रम में हम बनमानुष से मानुष बने …..

 

लेकिन ये भी सच है कि,
मानव कुछ परिवर्तन स्वयँ भी कर सकते हैं

अगर चाहें तो

 

और फिर हमारा देश तो आस्था और विश्वास का देश है

जहाँ यूँ ही कुछ चमत्कार घट जाना मामूली बात है

मै तो इसे मानता हूँ , मित्रों !

आप इनकार न करें , यक़ीन करें


परिवर्तन, चमात्कारिक भी हो सकता है  
क्यों नही हो सकता भला

ज़रूर हो सकता है

अब देखिये न

इधर किसी संख्या बल घटी तो ,
चमात्कारिक रूप से

वर्षों से मौन ,

मूक विषधरों को ज़बान भी मिल गई

ये चमत्कार नहीं तो और क्या है ?

 

और मै ये भी जानता हूँ
भाषा , कौन सी है और कहाँ से सीखी गई है , रातों रात
ये सदियों के मूक बधिर इशारों की भाषा समझने वाले
किसके इशारों की तर्ज़ुमानी कर लेते हैं / कर रहे हैं

लेकिन , अफसोस !

अपनी प्रकृति प्रदत्त गुणों मे कोई परिवर्तन नही कर पाये
या, शायद इशारा ही न हुआ हो , परिवर्तन का

बहरहाल अपने प्राकृतिक गुणो का अनुशरण कर
ज़हर आज भी उगल लेते हैं , काट के नहीं तो ज़बान से सही

भाषा कोई भी हो, किसी की भी हो , भाव ज़हरीला हो

और तो और मै ये भी जनता हूँ
संख्या बल उलटते ही

एक और परिवर्तन होगा
ये सब फिर से मूक बधिर हो जायेंगे
ये तय  बात है

लेकिन ये भी तय है बात है
कौवों के काँव काँव से ध्वनि प्रदूषण तो हो सकता है , थोड़े समय के लिये
पर , काँव काँव से दीवारें नहीं गिरा करतीं

दीवारें वो भी स्पाती दीवारें
असंभव है !

**********************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 6, 2015 at 12:43am

रचना का कारण, तदोपरान्त कथ्य भले अभिधात्मक न हो परन्तु इसके इंगित प्रहारक हैं, अतः उनकी स्पष्टता दिखती हुई है. मुझे प्रतीत होता है, कि यह कविता आवेश और  प्रतिकार का प्रतिफलन है. ऐसी अभिव्यक्तियाँ एक ईमा में ही ठीक लगा करती हैं. वस्तुतः कविकर्म जब भावातिरेक में होता है तो अक्सर भावनाएँ शाब्दिक आकार पाती हैं. 

अक्षरी दोष इस बार अधिक होने से वाचन में असहजपन बना रहा. इस ओर ध्यान अवश्य बना रहे. 

प्रस्तुति हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ 

Comment by DIGVIJAY on November 26, 2015 at 1:11pm

बहुत ही सुन्दर एवं यथार्थवादी रचना हेतु आपको ढेरों बधाई आदरणीय ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 26, 2015 at 12:47pm

बहुत सुन्दर प्रस्तुति  आज  के माहौल पर सटीक कटाक्ष  बहुत बहुत बधाई आ० गिरिराज जी |

Comment by TEJ VEER SINGH on November 25, 2015 at 6:59pm

हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी!आजकल के सामाजिक और राजनैतिक वातावरण का उच्च स्तरीय मूल्यांकन करते हुये बेहतरीन कटाक्ष और हास्य  का मिश्रण लिये हुए शानदार रचना!पुनः बधाई!

Comment by Sushil Sarna on November 25, 2015 at 5:31pm

काँव काँव से दीवारें नहीं गिरा करतीं
दीवारें वो भी स्पाती दीवारें
असंभव है !

यथार्थ इंगित करती ये पंक्तियाँ रचना की जान हैं। इस यथार्थपरक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय गिरिराज भंडारी जी।

Comment by Shyam Narain Verma on November 25, 2015 at 2:35pm

बहुत सुन्दर और मार्मिक प्रस्तुति, हार्दिक बधाई ।

.सादर

Comment by amod shrivastav (bindouri) on November 25, 2015 at 10:02am
सही कहा बधाई

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