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तुम्हारे शहर में खाना ख़राब हूँ मैं तो (फिल बदीह ग़ज़ल 'राज')

1212   1122    1212    22

तमाम उम्र जलूँ आफ़ताब हूँ मैं तो,

पढ़ी न जाय कभी वो किताब हूँ मैं तो

 

न ढूँढिये मुझे केवल सराब हूँ मैं तो,

किसी चमन का फ़सुर्दा गुलाब हूँ मैं तो      .

 

खुदी के प्रश्न का खुद ही जबाब हूँ मैं तो,

हुजूर अपनी जमीं का नबाब हूँ मैं तो

 

एजाज नूर का जिसके जुबाँ जुबाँ पर है,

उस आईने का फ़क़त इक निकाब हूँ मैं तो

 

दिखा सके न कभी आँख गैर कोई भी

,वतन की हद पे लिखा इक रुआब हूँ मैं तो

 

बुला के बज्म में अपनी भला क्या कीजैगा

,तुम्हारे शहर में खाना ख़राब हूँ मैं तो

 

मुझे बुला के भला ख़्वाब में क्या पाओगे

मुसीबतों का सबब बेहिसाब हूँ  मैं तो

 

करेगा कैसे उजाला ये डूबता सूरज,

रखो न आस मेरी इक हुबाब हूँ मैं तो

---------------मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

 

 

 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 19, 2015 at 8:16pm

आ० समर कबीर भाई जी,ग़ज़ल पर आपकी उपस्थति को मैं अपना सौभाग्य मानती हूँ आपकी शेर दर शेर दाद मेरे उत्साह में कितना ईजाफ़ा करती है शब्दों में बयाँ  नहीं कर सकती|आपकी इस्स्लाह सर आँखों पर उर्दू शब्दों की जानकारी आपसे बेहतर किसे होगी हालांकि रुआब बहुत जगह पढ़ चुकीं हूँ किन्तु यह शब्द रौब का बिगड़ा हुआ रूप है यह तो ज्ञात हो गया है तो भविष्य में इससे बचना ही चाहूंगी |ग़ज़ल पर दाद और मार्गदर्शन का आपका बहुत- बहुत शुक्रिया. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 19, 2015 at 8:12pm

आ० रवि शुक्ला जी,आपकी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ उत्साहित हूँ आपने ग़ज़ल को इतना मान दिया दिल से आभार आपका.  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 19, 2015 at 8:10pm

आ० श्याम नारायण वर्मा जी ,आपका हृदय से आभार. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 19, 2015 at 8:09pm

आ०  डॉ ० कंवर करतार जी,आपका तहे दिल से शुक्रिया|  

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on September 19, 2015 at 7:10pm

बेहतरीन आ० फिल बदीह के दायरे में  इतनी बेहतरीन गजल कहना सच में कमाल है...नमन!

सारे शेर बेहतरीन हुए है...आ० समर सर की बात अपनी जगह ठीक है पर ..''रौब-रुबाब'' आदि इस तरह के मूल शब्द के साथ के पूरक शब्द अब इतने प्रचलित हो चुके है की केवल रुबाब का प्रयोग करने में मुझे कुछ दोष नज़र नही आता..!

एक शेर ये...

1212   1122    1212    22

मुझे बुला/ के भला ख़्वा/ब में क्या पा/ओगे...............क्या को १ मात्रा माना जा सकता है क्या??

मुसीबतों का सबब बेहिसाब हूँ  मैं तो...............यहाँ ख़्वाब में बुलाना उतना जंच नही रहा है.....हकीकत की बात हो तो शेर और मारक हो जाये!सादर!

Comment by Samar kabeer on September 19, 2015 at 12:01am
बहना राजेश कुमारी जी,आदाब,बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने और इस पर कमाल ये है कि यह फ़िल बदीह है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
बहना एक शैर की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा :-

"दिखा सके न कभी आँख गैर कोई भी
,वतन की हद पे लिखा इक रुआब हूँ मैं तो"

इस शैर में क़ाफ़िया सही नहीं है ,बहना,उर्दू में रुआब कोई शब्द ही नहीं है,एक शब्द है "रौब" ,देख लीजियेगा,बाक़ी शुभ-शुभ ।
Comment by Ravi Shukla on September 18, 2015 at 2:58pm

आदरणीया राजेश जी  बहुत ही सुन्‍दर ग़ज़ल कही है पिछले मुशायरे से पहले ये बह्र बहुत मुश्किल समझ रहे थे  पर अब तो इस पर ग़ज़ले पढ़ का बहुत अच्‍छा लग रहा है । लगातार जलते रहने वाली शय के रूप मे आफताब से बेहतर अौर क्‍या हो सकता है बहुत सुन्‍दर कथ्‍य है ग़ज़ल में आदरणीया । बधाई स्‍वीकार करें ।

Comment by Shyam Narain Verma on September 18, 2015 at 12:36pm
इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई ,
Comment by कंवर करतार on September 17, 2015 at 10:40pm

वहन राजेश, सुंदर ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 17, 2015 at 9:23pm
दीदी उस शेर में ऐब कुछ नहीं है मेरा कहने का मतलब था ये मत्ला और भी निखारा जा सकता है

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