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ग़ज़ल : हम जिन्दा भी हैं मुर्दा भी

बह्र : २२ २२ २२ २२

 

श्रोडिंगर ने सच बात कही

हम जिन्दा भी हैं मुर्दा भी

 

इक दिन मिट जाएगी धरती

क्या अमर यहाँ? क्या कालजयी?

 

उस मछली ने दुनिया रच दी

जो ख़ुद जल से बाहर निकली

 

कुछ शब्द पवित्र हुए ज्यों ही

अपवित्र हो गए शब्द कई

 

जिस दिन रोबोट हुए चेतन

बन जाएँगें हम ईश्वर भी

 

मस्तिष्क मिला बहुतों को पर

उनमें कुछ को ही रीढ़ मिली

 

मैं रब होता, दुनिया रचता

इस से अच्छी, इस से जल्दी

----------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 19, 2015 at 9:59am

शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 19, 2015 at 9:59am

शुक्रिया आदरणीय समर साहब।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 19, 2015 at 9:58am

शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी। इस शे’र को कहने का तात्पर्य इतना ही है कि इस गरीबी, गैरबराबरी, भूख, लाचारी, दुख से भरी हुई दुनिया से बेहतर दुनिया रची जा सकती थी और मैं रब होता तो इससे बेहतर दुनिया रच देता और इसे रचने में मुझे अरबों वर्षों का समय भी नहीं लगता।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 18, 2015 at 8:47pm

अच्छी ग़ज़ल कही है आ० धर्मेन्द्र जी ,हार्दिक बधाई आपको 

मस्तिष्क मिला बहुतों को पर

उनमें कुछ को ही रीढ़ मिली----वाह्ह्ह 

 

Comment by दिनेश कुमार on August 18, 2015 at 5:37pm
आ.भाई धर्मेंद्र जी, इस गजल के लिए हार्दिक बधाई.
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2015 at 10:34am

आ0 भाई धर्मेंद्र जी, इस गजल के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by Harash Mahajan on August 17, 2015 at 3:29pm
आ0 धर्मेन्द्र जी एक अच्छी पेशकश ।दाद क़बूल कीजियेगा ।
Comment by Samar kabeer on August 17, 2015 at 2:55pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आदाब,इस प्रस्तुति के लिये दाद क़ुबूल फरमाएं। जनाब मिथिलेश जी की बात से मैं भी सहमत हूँ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 17, 2015 at 12:47pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, छोटी बह्र की बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं. इस एक शेर के हो जाने या लिखे जाने का तात्पर्य नहीं समझ आया.

मैं रब होता, दुनिया रचता

इस से अच्छी, इस से जल्दी

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