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बुनियाद (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर [अंतरराष्ट्रीय मित्रता दिवस पर ]

“आज फ्रेंडशिप डे है मगर ये डिसिप्लिन साला!....... सेलिब्रेट भी नहीं कर सकते.”

“आर्मी लाइफ है ब्रदर.”

“सुना, अमेरिका में ईराक पर हमले का अमेरिकी सैनिकों के साथ-साथ सिविलियन भी विरोध कर रहे है.”

“हाँ यार...... इतने पावरफुल देश की सेना में डिसिप्लिन ही नहीं है क्या?”

“अच्छा.... अगर इन्डियन आर्मी पाकिस्तान पर हमला करें तो क्या यहाँ भी विरोध होगा?”

“ अबे गद्दारों जैसी बात मत कर.......हमारा देश, राष्ट्रभक्तों का देश हैं. इसकी बुनियाद में ही......”

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 3, 2015 at 10:30am

लीक से हटकर शिल्पगत  लघु कथा लिखी है मिथिलेश भैया बहुत बढ़िया दिल से बधाई लीजिये सच कहा हमारे देश की तो बुनियाद ही देश भक्ति पर खड़ी हुई है |

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 3, 2015 at 9:59am
प्रिय मिथिलेश जी , बधाई हो।आपने बुनियाद को पारिवारिक संबंधों से इतर कोई आयाम तो दिया। देश ( भक्ति ) के सम्बन्ध में बुनियाद की बात तो वैसे ही कहीं रुक सी जाती है जैसे आपकी यह लघु-कथा। गम्भीर विषय उठाने के लिए पुनः बधाई। सादर।
Comment by Archana Tripathi on August 3, 2015 at 8:30am
बेहतरीन रचना मिथिलेश वामनकर जी ,यही तो विशेषता हैं हमारी की अनेक होते हूए भी अगर देश पर आंच आयी तो एक सूत्र में गुथ जाते हैं ।हार्दिक बधाई आपको ।
Comment by kanta roy on August 3, 2015 at 12:00am
बहुत ही खूब बात बनी है आपकी इस लघुकथा में आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी .... बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 2, 2015 at 9:20pm

आदरणीय मिथिलेश जी .बहुत दिनों से जिस तरह की लघु कथाएँ पढ़ रहा था उन सबसे जुदा अंदाज में एक शसक्त और इशारो में बोलती शानदार लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 2, 2015 at 7:56pm

वाह ! वाह रे व्यंग्य और व्यंग्य की धार !!
इस लघुकथा के माध्यम से आप बहुत ही ऊँची बात साझा कर गये हैं, आदरणीय मिथिलेश भाई. ऐसे ही इंगितों की साहित्यिक रचनाएँ अपेक्षा करती हैं.

संवेदनशील रचनाकर्म अभिधामूलक कम, व्यंजनामूलक अधिक हुआ करता है. वस्तुतः लघुकथा की विधा, जैसा कि अबतक के जुड़ाव में मैंने समझा है, --यदि गलत साबित हो जाऊँ या कर दिया जाऊँ, तो अपने कहे पर सादर क्षमा मांग लूँगा-- अपने विन्यास में अत्यंत संयत व्यंजनामूलक ’कविता’ की तरह सांकेतिक विन्यास चाहती है. अत्यंत आवश्यक शब्दों में इंगितों और बिम्बों का अनुशासित उपयोग करने का नाम यदि कविताकर्म है, तो यही गद्य क्षेत्र में लघुकथा के लिए भी सच है. सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आपने विषयवस्तु के विस्तार केलिए ’वही-वहीपन’ से नितांत अलग कथानक लिया है. यह अधिक आश्वस्तकारी है.

अपने मंच पर एक जुमला चलता है, ’कुछ रचनाएँ की नहीं जातीं, वो हो जाती हैं’. ऐसे जुमले का अर्थ मैं अब जा कर समझ पाया हूँ. लेकिन आपने इस रचना पर वस्तुतः काम किया है. आवश्यक मेहनत की है. अब दीर्घकालीन सतत प्रयास करते जाने की आवश्यकता है.

आपकी इस लघुकथा केलिए हृदय से बधाई, आदरणीय,  हार्दिक शुभकामनाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 1, 2015 at 1:35pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, इस लघुकथा के मर्म पर आपका अनुमोदन बहुत मायने रखता है मेरे लिए. आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. आपका हार्दिक आभार. 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 1, 2015 at 12:52pm
आदरणीय मिथिलेश जी ये हुई है बुनियाद पर शानदार लघुकथा। दाद कुबूल कीजिए।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 30, 2015 at 11:52pm

आदरणीय तेज बहादुर सिंह जी आपको लघुकथा रोचक लगी, लिखना सार्थक हुआ. हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 30, 2015 at 11:51pm

आदरणीया  Neelima Sharma Nivia जी, आपकी उपस्थिति हेतु आभार 

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