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मरासिम.............."जान" गोरखपुरी

२२१  २१२१     १२२१   २१२

 

ये हैं मरासिम उसकी मेरी ही निगाह के

तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के

..

सजदा करूँ मैं दर पे तेरी गाह गाह के

पाया खुदा को मैंने तो तुमको ही चाह के

 ..

हाँ इस फ़कीरी में भी है रुतबा-ए-शाह के

यारब मै तो हूँ साए में तेरी निगाह के

 ..

जो वो फ़रिश्ता गुजरे तो पा खुद-ब-खुद लें चूम

बिखरे पडे हैं फूल से हम उसकी राह के

 ..

छूटा चुराके दिलको वबाले-जहाँ से मैं

ऐ “जान” हम हुए हैं मुरीद इस गुनाह के

********************************************

मौलिक व् अप्रकाशित (c) "जान" गोरखपुरी

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 23, 2015 at 8:14am

आ० विजय सर! हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया सर!आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 23, 2015 at 8:13am

प्रिय भाई महर्षि जी.हार्दिक आभार!

Comment by वीनस केसरी on June 23, 2015 at 3:47am

समय नहीं है इसलिए एक शेर पर ही बात हो सकी ....
वैसे एक बात काबिले तारीफ़ है कि बहर को आपने अच्छे से साधा है ...

इसके लिए ढेरो दाद

Comment by वीनस केसरी on June 23, 2015 at 3:33am

ये हैं मरासिम उसकी मेरी ही निगाह के........

तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के ..................


आपके बताये अनुसार आप मतला कहते समय जो भाव लाना चाहते थे = उसकी और मेरी निगाह का वही रिश्ता (मरासिम) है जो कायनात की तामीर करने वालों (आदम और हव्वा) के बीच था ....


अब देखें -

-- ही शब्द मरासिम पर लागू हुआ है जो कि छिटक कर बहुत दूर चला गया है जिसके कारण दिक्कत हो रही है

--  दूसरा मिसरा शब्द क्यों खटक रहा है देखें = आप दूसरे मिसरे में अपने रिश्ते की उपमा देना चाहते हैं मगर ज़रा मिसरों में उपस्थित शब्दों से निकल रहे अर्थ को देखें 

ये हैं मरासिम उसकी मेरी ही निगाह के........= ये उसकी और मेरी ही निगाह के रिश्ते हैं 

तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के ...........= सृष्टि की रचना जिसका गवाह है + के


अब आप खुद सोचें इस अर्थ से
= ये उसकी और मेरी ही निगाह रिश्ते हैं कायनात की तामीर जिसका गवाह है

इस भाव तक कैसे पहुंचा जाए
= उसकी और मेरी निगाह का वही रिश्ता है जो कायनात की तामीर करने वालों के बीच था ....

यह भी गौर करें कि दूसरे मिसरे में के शब्द की क्या ज़रुरत है ?

एक और बात
कायनात को आदम और हव्वा ने नहीं बनाया है इसे यहोवा ने बनाया था, और आदम व हव्वा को पैदा करने से पहले बना लिया जहाँ पर जिन्नात रहते थे
बाद में जिन्नात द्वारा पृथ्वी से तीन तरह की मिट्टी मंगवाकर आदम को बनाया ...
इसलिए "कायनात की तामीर करने वाला" से आदम और हव्वा की मुराद हो ही नहीं सकती ....

==================================

गिरिराज भंडारी जी के लिए

गाह
का अर्थ = कभी, स्थान, वक्त, खेमा, तम्बू   

.
जैसे - चारागाह ... वह स्थान जहाँ चारा हो
.
गाहे ब गाहे / गाहे - गाहे = कभी-कभी, यदा-कदा  


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 22, 2015 at 2:09pm

आदरणीय जान भाई , मै भी आदरणीय शिज्जु भाई की बात से सहमत हूँ , आपके कुछ शे र वो कह नहीं पा रहे हैं जो आप चाहते हैं । सभी को तो बता नहीं सकता पर कुछ की बात रख रहा हूँ --- 

1- तामीरे-कायनात है जिसका ग़वाह के  -    यहाँ  - तामीरे-कायनात है जिसके  ग़वाह में  -- कुछ अर्थ दे रहा है  ,  के,  की जगह  में

2- सजदा करूँ मैं दर पे तेरी गाह गाह के   ---  गाह गाह का मतलब है,  कभी  क भी    , यहाँ भी के की ज़रूरत नहीं है , कभी कभी के  कहने का कोई अर्थ नही है

3 - हाँ इस फ़कीरी में भी है रुतबा-ए-शाह के   , यहाँ भी रुतबा ए शाह-  मे   के,  का  शामिल है  , और के  लगाने का कोई माने नही है

सोच के देखियेगा ।

Comment by Shyam Narain Verma on June 22, 2015 at 1:30pm
इस लाजवाब, उम्दा ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई 
Comment by Dr. Vijai Shanker on June 22, 2015 at 1:29pm
छूटा चुराके दिलको वबाले-जहाँ से मैं
ऐ “जान” हम हुए हैं मुरीद इस गुनाह के
बहुत ही अच्छी ग़ज़ल बनी है, प्रिय कृष्ण मिश्रा " जान " जी , बधाई , सादर।
Comment by maharshi tripathi on June 21, 2015 at 11:10pm

जो वो फ़रिश्ता गुजरे तो पा खुद-ब-खुद लें चूम

बिखरे पडे हैं फूल से हम उसकी राह के,,,,,,,,,,,,,,,,वाह !  भाई जी ,,क्या खूब कहा है ,,,,बधाई आपको |

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 21, 2015 at 9:35pm

गजल पर उपस्थिति देकर हौसलाफजाई करने के लिए हार्दिक आभार आ० शिज्जू सर !अभी तो गज़ल कहना सीखना शुरू ही किया है सर...आ० आपके मार्गदर्शन के लिए आभारी रहूँगा...


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Comment by शिज्जु "शकूर" on June 21, 2015 at 9:25pm

जनाब गोरखपुरी जी आपने बह्र तो खूब निभाई इसके लिये बधाई जहाँ तक कहन का सवाल है मुझे पूरी ग़ज़ल उलझी उलझी लगी

कृपया ध्यान दे...

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