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गज़ल..........'जान' गोरखपुरी

२ १ २ २

 

इश्क क्या है?

इक दुआ है

 

दिल इबादत

कर रहा है

 

अपना अपना

कायदा है

 

पत्थरों में

भी खुदा है

 

कौन किसका

हो सका है

 

नाम की ही

सब वफा है

 

बस मुहब्बत

आसरा है

 

बिन पिये दिल

झूमता है

 

आँख उसकी

मैकदा है

 

फूल कोई

खिल रहा है

 

कातिलाना

हर अदा है

 

क्या हुआ गर

बेवफा है

 

जहर भी तो

इक़ दवा है

 

अब मुकम्मल

फैसला  है

 

तुम हो और ना

दूसरा है

 

बस गज़ल अब

हमनवा है

 

मै रदिफ वो

काफिया है

 

************************************

मौलिक व् अप्रकाशित (c) ‘जान’ गोरखपुरी

***********************************

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on May 3, 2015 at 6:58am
यह ग़ज़ल तो वाकई कमाल है , बधाई, प्रिय कृष्ण मिश्रा जी, सादर।
Comment by seema agrawal on May 3, 2015 at 12:54am

वाह  क्या  कहना  इतनी छोटी  बहर में  ग़ज़ल  कहना  कमाल  ही है 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 2, 2015 at 9:45pm

आदरणीय कृष्णा भाई , बहुत बढ़िया एक रुक्नी गज़ल  कही है , हार्दिक बधाई स्वीकार करें ॥ दिये आवश्यक सलाहों पर अमल कीजियेगा ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 2, 2015 at 9:44pm

वाह वाह आदरणीय कृष्ण भाई जी शानदार ग़ज़ल हुई है. दाद ही दाद 

Comment by Mala Jha on May 2, 2015 at 8:38pm
बहुत खूब!!
Comment by MAHIMA SHREE on May 2, 2015 at 4:48pm

वाह..उम्दा  ..बधाई आपको..

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2015 at 4:23pm

बहुत अच्छे ..विद्वतजनो की राय बहुत काम की है 

Comment by वीनस केसरी on May 2, 2015 at 4:04pm

एक रुक्नी ग़ज़ल का अच्छा प्रयोग किया है ...


जहर की मात्रा २१ होती है


तू ही तू है न ..... इस मिसरे में आपने अतिरिक्त लघु लिया है मगर पढने में बहुत अटकाव है ,,,,


समर साहब की इस्लास पर भी गौर करें

हाँ समर साहब से एक निवेदन है कि ये रुक्ने रमल है ... खफीफ़ नहीं ...

Comment by Samar kabeer on May 2, 2015 at 2:25pm
जनाब "जान" गोरखपुरी जी,आदाब,बह्रे ख़फ़ीफ़ में बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |

ग़ज़ल का आख़री शैर :-

"मै रदिफ वो
काफिया है"

इस पर विचार कर लीजियेगा

(1) रदिफ़ :- सही शब्द रदीफ़
(2) रदीफ़ स्त्रीलिंग है

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