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खुद से खफा हूँ......'जान' गोरखपुरी

2212    2212  2212  222

 

खुद से खफा हूँ जिन्दगी मक्तल हुयी जाती है

कोई खता गो आजकल पल पल हुयी जाती है

 

जबसे मुझे उसने छुआ है क्या कहूँ हाले दिल

शहनाई दुनिया धड़कने पायल हुयी जाती है

 

अब जबकि मै मानिन्द सहरा सा होता जाता हूँ

है क्या कयामत ये??जुल्फ वो बादल हुयी जाती है

 

शम्मा जलाकर मेरे दिल का दाग जिसने पारा

स्याही वही अब चश्म का काजल हुयी जाती है

 

सदके ख़ुदा को जाऊ मै क्या खूब रौशन है नूर

नजरें मेरी टुक देखते घायल हुयी जाती है

 

गजलें मेरी सुन फूल गुलशन में नये खिलते हैं

दादे-शजर जैसे नयीं कोंपल हुयी जाती है

 

इस मस्त पुरवाई में तुम अब चांदनी बन आओ

तन्हाई की रातें बड़ी बेकल हुयी जाती है

 

मुझको कभी अपनी अना पे नाज आता था ‘’जान’’

अब कायनात उसकी तहे आँचल हुयी जाती है

 

 

*********************************

मौलिक व् अप्रकाशित (c) ‘जान’ गोरखपुरी

*********************************

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 8, 2015 at 8:05am

बहुत बहुत शुक्रिया आ० 'इंतजार' सर! आपकी सराहना से रचनाकर्म को मान मिला! हार्दिक आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 8, 2015 at 8:03am

उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत शुक्रिया आ० vijai shanker सर!

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 7, 2015 at 8:23am

गजलें मेरी सुन फूल गुलशन में नये खिलते हैं

दादे-शजर जैसे नयीं कोंपल हुयी जाती है

जनाब तरक्की पे हैं हर बार पहले से बेहतर हुई जाती हैं ....बधाई ...सादर  

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 6, 2015 at 11:37pm
क्या खूब ग़ज़ल हुयी , खुद से खफा हूँ , बधाई, प्रिय कृष्ण मिश्रा जी , सादर।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 6, 2015 at 7:23am

उत्साहवर्धन हेतु बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश सर! मंच के मार्गदर्शन में प्रयास ज़ारी है धीरे धीरे सब दुरुस्त जायेगा मुझे पूर्ण विश्वास है!आ० स्नेह बनाये रक्खें !सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 5, 2015 at 10:54pm

वाह वाह आदरणीय कृष्ण भाई जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है... दाद हाज़िर है 

बस  मिसरों से बह्र का दबाव थोड़ा सा और कम कर लीजिये एक उम्दा ग़ज़ल हो जायेगी 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 5, 2015 at 10:13pm

हम्म!!गजल की मूलभूत बातों को फिर से अच्छे से दोहराने की आवश्यकता महसूस हो रही है..बहुत सी महीन बातें मिस हो रहीं है!दिमाक से उतर रहीं है!

मार्गदर्शन हेतु बहुत बहुत आभार!आदरणीय nilesh सर....

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2015 at 9:37pm

ल स्थायी अक्षर है इसके साथ चपल अक्षर चल में च, पल में प आदि होंगे मुश्किल में इल आता है जो अल के साथ नहीं बैठेगा.
ग़ज़ल की कक्षा में काफ़िये का विधान विद्यमान है
सादर  

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 5, 2015 at 7:52pm

आ० क्या काफिया केवल 'ल' लेना दोषपूर्ण होगा?? मार्गदर्शन निवेदित है

सादर!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2015 at 4:30pm

आ. जान गोरखपुरी जी.
मुश्किल के साथ पल काफ़िया लेना दोषपूर्ण हो रहा है.  
सादर 

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