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गम नही मुझको............'जान' गोरखपुरी

   २१२  २१२२   १२२२

गम नही मुझको तो फ़र्द होने पर               (फ़र्द = अकेला)

दिल का पर क्या करूं मर्ज होने पर

 

उनको है नाज गर बर्क होने पर

मुझको भी है गुमां गर्द होने पर

चारगर तुम नहीं ना सही माना

जह्र ही दो पिला दर्द होने पर

 

अपनी हस्ती में है गम शराबाना

जायगा जिस्म के सर्द होने पर

 

डायरी दिल की ना रख खुली हरदम

शेर लिख जाऊँगा तर्ज होने पर

 

तान रक्खी है जिसने तेरी चादर

भूलता क्यूँ उसे अर्श होने पर

 

माल साँसों की, कर हर घड़ी सिमरन

ठगना क्या?वख्त-ए-मर्ग होने पर

 

जुर्म उसका होना अन्नदाता था

लटका सूली दिया कर्ज होने पर

 

बात सच्ची कहूँ सुन  मिले चाहे

बद्द्दुआ लाख़ ही तर्क होने पर

 

मुफलिसी का तेरी तू है जिम्मेवार

है गुनह रहना चुप फ़र्त होने पर                 (फ़र्त = ज्यादती/जुल्म)

 

रात सोलह दिसम्बर बारह दिल्ली

शर्मसार आदमी मर्द होने पर

******************************************

मौलिक व् अप्रकाशित (c) ‘जान’ गोरखपुरी

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Comment

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Comment by Pari M Shlok on June 5, 2015 at 12:06pm
krishna mishra 'jaan'gorakhpuri यहाँ पर दी गयी जानकारी से बहुत मदद मिली समझने में आ.'वीनस केसरी जी' आ.'गिरिराज भंडारी जी' का आभार
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 19, 2015 at 8:47am

आ० भाई मनोज जी! गणित की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह उतना ही व्यावहारिक भी है,यानि गणित के बिना हमारा जीवन चल ही नही सकता,देखें तो पूरा ब्रम्हांड ही गणितीय समीकरण पर आधारित है,गणित कठिन इसलिये लगता  है क्युकी सच के साथ प्रस्तुत होता है,जो कडवा होता है,और कडवी चीजें हमें पसंद नही है!पर सच(गणित) के बिना चला नही जा सकता! आशा है आप मेरी बात को समझ पाएंगे!वैसे मेरा भी गणित बहुत कमजोर है!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 19, 2015 at 8:21am

आ० मिथिलेश सर!रचना पर आपकी उपस्थिति और चर्चा को सकारात्मक दिशा देने के लिए हृदय से आभारी हूँ!सादर

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 19, 2015 at 8:13am

आ० वीनस सर आपकी सह्रदयता और सरलता को नमन!जिस सरलता से आपने बात समझाई है, सारे संशय दूर हो गए,मन में चल रहे प्रश्नों का उत्तर मिल गया!देखा जाये तो जो प्रश्न मैंने उठाये वह हिंदी व्याकरण और उर्दू व्याकरण में मूल अन्तर के कारण उत्पन्न हो रहे है!मेरे जैसे केवल हिंदी का ज्ञान रखने वालों के लिए ये बड़ी समस्या है,अगर गज़ल की दृष्टी से उर्दूं व्याकरण पर कोई पाठ मिल जाता तो सीखने बहुत आसानी हो जाती और बहुत सी समस्याओं का निराकरण स्वतः हो जाता!जैसे की आज मुतहर्रिक और साकिन का कांसेप्ट समझ में आया!

रात्रि में पावरकट की समस्या के चलते चर्चा से जुड़ नही सका और जैसा कि आ० मिथिलेश सर और आपकी टिपण्णी में मै देख पा रहा हूँ..रस्स,  इश्बाअ,  हज्व,  तौजीह,  मजरा और  नफ़ाज़ आदि के विषय में ओबीओ पर उपलब्ध लेख के सामान्य भाषा में होने के कारण जान कर भी अनजान होने जैसी स्थिति हो रही है,इसे स्पष्ट करने की भी आवशयकता है,जो गज़ल की दृष्टी उर्दूं व्याकरण पर पाठ द्वारा ही संभव है,यह जानकर बहुत हर्ष हुआ के आ० आपकी गज़ल पर आने वाली पुस्तक में इस विषय में विस्तार से लेख है,फिर मुझे इसमें कोई संदेह नही के आप जिस सरलता बात को रखते हैं उसके बाद कोई संशय शेष बचेगा!आ० आपकी पुस्तक के जल्द से जल्द उपलब्ध होने की कामना है,जिससे हम सभी लाभान्वित हो सकें!

Comment by वीनस केसरी on May 19, 2015 at 12:03am

मनोज जी,

एक अनुभव आपसे साझा करता हूँ

आप जिस सोच के साथ इस रचना पर प्रस्तुत हुए है, उस सोच के साथ लोग इस मंच पर अधिक दिन सक्रीय नहीं रह पाते, या तो कुछ दिन में उनकी सोच बदल गयी या वो मंच पर सक्रीय नहीं रह पाए 
आपके प्रति मेरी शुभकामनाएं

Comment by वीनस केसरी on May 18, 2015 at 11:46pm

मिथिलेश जी,
पोस्ट से संबंधित बातें करने तक तो ठीक है मगर इस विषय पर यहाँ कुछ कहना उचित न होगा ...

वैसे काफिया के परिचय और दोष के दो लेख जो ओबीओ पर मौजूद हैं उनमें ये सब मौजूद है, ये बात अलग है कि मैंने सब कुछ सामान्य भाषा में लिखा है और ये अरूज़ की शब्दावली है

आपको मेरी किताब में इस विषय पर एक लेख मिल जाएगा, जिसमें मैंने विस्तार पूर्वक सब कुछ लिखा है, किताब अभी प्रकाशन प्रक्रिया में हैं 
सादर


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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 18, 2015 at 10:47pm

आदरणीय कृष्ण भाई जी आपकी प्रस्तुति और आपके प्रश्नों से एक अच्छी चर्चा हुई और आदरणीय  वीनस भाई जी ने बहुत अच्छे से समझाया है. चर्चा चली है तो आदरणीय वीनस भाई जी से निवेदन है कि रस्स,  इश्बाअ,  हज्व,  तौजीह,  मजरा और  नफ़ाज़   के विषय में कुछ बताएं.

Comment by वीनस केसरी on May 18, 2015 at 3:37pm

कृष्णा भाई जी
सबसे पहले आपको बधाई कि आप तथ्यों से अवगत होना चाहते हैं

संक्षेप में समझें -

   फ़र्द= फ+र्+द्+अ
    मर्ज=म+र्+ज़्+अ

    दर्द= द+र्+द्+अ

आपने जिस तरह इन शब्दों को तोडा है वो गलत है

फर्द मर्ज़ और दर्द में आख़री अक्षर मुतहर्रिक न हो कर साकिन हैं ... अर्थात हलंत हैं इनमें बाद "अ" नहीं आएगा

फ़र्द= फ+र्+द्
दर्द= द+र्+द्

मर्ज=म+र्+ज़्   

अब आप देखें ,, फ़र्द के साथ दर्द का काफिया तो बनेगा मगर मर्ज़ हमकाफिया नहीं है, क्योकि केवल ज़बर जेर पेश (अर्थात अ इ उ) को हर्फे रवी नहीं बनाया जा सकता

मिला के साथ हवा का काफिया क्यों बन रहा है इसे भी देख लें

ह् +अ+व्+ अलिफ़ = हवा   
म् + इ + ल् + अलिफ़ = मिला

सकिन को मुतहर्रिक करने वाला "अ" और अलिफ़ में अंतर होता है ... जो सकिन को मुतहर्रिक करता है वो छोटा अ होता है और अलिफ़ (बड़ा आ) होता है  जब हम अलिफ़ (अर्थात आ) को तोड़ें -

आ = अ + अ 

अब फिर से हवा और मिला को तोड़ें =


ह् +अ+व्+ अ + अ  = हवा   
म् + इ + ल् + अ+ अ = मिला

अलिफ़ का पहला अ व् और ल् अक्षर को मुतहर्रिक करता है और दूसरा अ काफिया का हर्फे रवी बनता है ....

यदि स्पष्ट न हुआ हो तो चर्चा को जारी रखें ....

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 18, 2015 at 12:06pm

आ० गिरिराज सर!गज़ल पर हौसलाफजाई और मार्गदर्शन हेतु आभार! आदरणीय आपने सच कहा 'सीखना अपने अन्दर की कमियों को निकालते जाना है , न कि तर्कों से कमियों को बचाने का प्रयास' आ० मेरा उदेश्य तर्क द्वारा कमियों से बचना नही,बल्कि सार्थक चर्चा और गुरुजनों के मार्गदर्शन में कमियों को दूर करना है!मुझे स्पष्ट भान था के मतले में काफिया फ़र्द और दर्द की जगह ,फ़र्द और मर्ज लेने पर दोष होगा पर अपने मन के प्रश्नों के निवारण हेतु काफ़िया फ़र्द और मर्ज ही रक्खा! आ० सीखना ही मेरा उदेश्य रहता है..प्रयास करता हूँ के इससे न भटकूँ! आ० इसी प्रकार अपना स्नेह बनाये रक्खे!

कुछ एक बातें और मन में आई है सो मार्गदर्शन हेतु यहाँ रख रहा हूँ...

गजल के कवाफ़ी में एक विशेष बात ये हो रही है की...

    फ़र्द= फ+र्+द्+अ
    मर्ज=म+र्+ज़्+अ

    दर्द= द+र्+द्+अ

 में र् व्यंजन साम्य के रूप में आकर तुकांत का काम कर रहा है,और हर्फे रवी के साम्य न होने की कमी को पूरा कर रहा है,और 'अ'  हर्फे इल्लत के रूप में साम्य हो रहा है! अगर ध्यान दे तो 'अ'  हर्फे इल्लत के रूप में स्पष्ट रूप से अलग हो रहा है उच्चारण में!(हो सकता है ये मेरे शब्द पर जोर देने पे हो रहा हो)

मै कुतर्क करना नही चाहता पर जो मुझे समझ में  आया वो साझा किया! फ़र्द,मर्ज, अर्श, आदि में साम्य की एक अलग स्थिति बन रही है अपवाद की तरह! जैसा की हालहिं में आ० nilesh सर ने  निदा फाजली सर के एक अपवाद को प्रतुत किया था जिसे जगजीत सिंह जैसे गजल गायक ने आवाज भी दी है:-

 

'तुम ये कैसे जुदा हो गये

हर तरफ हर जगह हो गये'

 

मेरा उददेश अपनी गजल के कवाफ़ी को मान्य करवाना नही है,मन में बात आई तो साँझा की,हो सकता है मैं बिल्कुल ही गलत होऊं! मुझे लगता है..गजल के काफ़िया बाधने के नियमों में अभी बहुत कुछ जुड़ने की गुंजाइश है!जैसा कि किसी भी क्षेत्र में लगातार सुधार और परिस्कृत करने की गुंजाइश बनी रहती है...


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Comment by गिरिराज भंडारी on May 18, 2015 at 11:22am

आदरणीय कृष्णा भाई , बातें बहुत सुन्दर कहीं है , इसके लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ पर आपके मतले में काफिया ही नहीं है , मैने आ. वीनस भाई जी की बात और आपका जवाब दोनों पढ़ लिया है । बस इतना कहना चाहता हूँ  कि,  सीखना अपने अन्दर की कमियों को निकालते जाना है , न कि तर्कों से कमियों को बचाने का प्रयास ॥ ये मेरा अपना विचार है , कोई ज़रूरी नहीं कि आप सहमत हूँ ।

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