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ग़ज़ल -- प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही -- ( गिरिराज भंडारी )

२११२२        २११२२         २११२      

प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही

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प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही

ख्वाब तो हो, सच्चा न सही  मुबहम ही सही

 

लम्स तेरा जिसमें न मिले वो चीज़ ग़लत

आब हो या महताब हो या ज़म ज़म ही सही 

 

मेरे सहन में आज उजाला , कुछ तो करो    

धूप अगर हलकी है उजाला कम ही सही

 

कुछ तो इधर अब फूल खिले सह्राओं में भी 

काँटों लदी हो डाल खिले कम कम ही सही

 

तेज़ बहुत रफ़्तार लगी खुशियों की उधर

कुछ तो बहे अपनी भी गली , मद्धम ही सही

 

है तो फिरी दुनिया की नज़र चल मान लिया 

मेरी वफ़ा कायम है अगर कायम ही सही

 

ता कि ये हथकड़ियाँ भी शिकायत कर न सके 

जब न कलाई कोई जँची, तो हम ही सही  

****************************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

 

Views: 1129

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 4, 2015 at 7:07am

आदरणीय सौरभ भाई , आपकी उपस्थिति से गज़ल गौरवांन्वित हुई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 3, 2015 at 9:00pm

आदरणीय गिरिराज सर, बहुत बेहतरीन ग़ज़ल हुई है, कठिन बह्र को किस खूबसूरती से निभाया है आपने. मैं मुग्ध हूँ इस ग़ज़ल पर. ये मेरी होमवर्क ग़ज़ल है. इस सप्ताह इसी पर काम करना है. फिलहाल नमन आपको इस कठिन बह्र को इतनी सहजता से निभाने के लिए.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 12:14pm
क्या ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज जी। दिली दाद कुबूल कीजिए
Comment by Shyam Narain Verma on April 3, 2015 at 12:05pm
बहुत सुन्दर भावों से सजी रचना बहुत 2 बधाई आदरणीय 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 2, 2015 at 11:40pm

क्या रदीफ़ लिया है आपने और किस सहजता से निभाया है इसे आपने, आदरणीय गिरिराजभाईजी !

दिल से दाद कुबूल करें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 11:26pm

जनाब समर कबीर जी , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 11:25pm

आदरणीय अजय भाई , ग़ज़ल कीसराहना के लिये आभार आपका । नीचे आ. श्याम भाई के कहने पर कटःइन शब्द का अर्थ दिया हूँ , आपके लिये भी दे रहा हूँ --

मुबहम-- धुँधला , अस्पष्ट 

लम्स --  स्पर्ष , छुवन

सह्राओं -- मरुस्थ्लों

Comment by Samar kabeer on April 2, 2015 at 10:57pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,बहुत ख़ूब,मुकम्मल ग़ज़ल है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by ajay sharma on April 2, 2015 at 10:53pm

ab to apki urdu din b din kathin hoti ja rahi hai .....lekin bhav istar par inhe samajhna ab bhi aasan lagta hai becuase aap likhte hi inta saaf aur asardar hai 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 9:24pm

आदरणीय सुशील भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥

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