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" हम " का बार बार बिखरना

चैन से रहते थे कभी
तीन कमरों की छत के साये में 
मैं ,मेरे माँ-बाबूजी
मेरी पत्नि 
मेरे बच्चे शामिल थे
एक 'हम ' शब्द में ।


धीरे धीँरे 
'हम ' शब्द बिखर गया
मा-बाबूजी बाहर वाले 
कमरे में भेज दिये गयेे
अब वो दोनों हो गये थे
' हम ' और माँ-बाबूजी 
अब हम ' का विस्तार 
मैं,मेरी पत्नि,मेरे बच्चों
तक सिमट गया था
माँ -बाबूजी 'और' हो चुके थे ।।


मेरा बेटा भी अब
बाल बच्चेदार हो गया हैे
'हम ' शब्द  आतुर है
एक बार फिरसे टूटने बिखरने 
मैं -मेरी पत्नि
' और '  होने वाले हैं 
मेरे बेटे के परिवार के लिये
मुझे अफसोस नहीं मेरे 
और हो जाने का 
अफसोस है
बाहर वाले कमरे को
कैसे खाली कराऊँ 
माँ-बाबूजी से ।।।

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा





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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 4:38pm

बहुत मार्मिक सत्य , आज के परिवार का !!  हार्दिक बधाई , आदरणीय ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 3:37pm

आदरणीय उमेश जी बहुत बेहतरीन कविता हुई है. हार्दिक बधाई 

Comment by umesh katara on April 2, 2015 at 2:25pm

आदरणीय krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी सादर आभार

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 2, 2015 at 1:25pm
क्या ख़ूब अंदाज में परिभाषित किया है आपने इस यथार्थ को आ० उमेश जी!!दिल से बहुत बहुत बधाईयां!
Comment by umesh katara on April 2, 2015 at 12:38pm

आदरणीय somesh kumar जी सादर आभार

Comment by umesh katara on April 2, 2015 at 12:37pm

आदरणीय laxman dhamiजी सादर आभार

Comment by umesh katara on April 2, 2015 at 12:37pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी सादर आभार

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 2, 2015 at 12:27pm

आ० कटारा जी

बड़ा ही शाश्वत सत्य है . आपको बधाई . सादर .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 2, 2015 at 11:54am

आ० भाई उमेश जी , यथार्थ को बयां करती इस रचना के लिए  बधाई

Comment by somesh kumar on April 2, 2015 at 11:18am

घर-घर यही कहानी -घर-घर यही वेदना |सुंदर भावनापूर्ण पर कटू सत्य |भावनाओं को प्रणाम |

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