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श्रृंगारिक ग़ज़ल - कमसिन उमरिया

212 212 212 212

 

कैसे कमसिन उमरिया जवां हो गयी

दिल से दिल की मुहोबत बयां हो गयी

 

ख्वाब आँखों से अब मत चुराना कभी 

नींद सपनों पे जब मेहरबां हो गयी

 

फूल बन के खिली गुलबदन ये कली 

आरजू फिर महक की जवां हो गयी

 

प्यार की बात हमने छुपाई बहुत

लोग सुनते रहे दासतां हो गयी

 

होंठ जबसे मिले होंठ ही सिल गए

कैसे चंचल जुबां बेजुबां हो गयी

 

दोस्त आगोश में आशना ऐ “निधी”

आज मन की जमीं आसमां हो गयी 

निधि 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Views: 1298

Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 19, 2015 at 10:05am
अजनबी के लिए तुम और स्वयं के लिए हम सम्बोधन , विचारिए अवश्य।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 19, 2015 at 10:03am

अजनबी तुमने देखा हमें इस तरह---दुरुस्त है बहुत अच्छा गुड 

रही बात महरबां या मेहरबाँ/मेह्रबां   तो मेरा संशय सिर्फ मात्राओं को लेकर है क्या मेह+र+ बां =२१२ में क्या ह साइलेंट हो सकता है या    म+हर+बां =  १२२ होगा ? मैं गुणी जनो से ये संशय दूर करना चाहती हूँ ?

Comment by Nidhi Agrawal on March 19, 2015 at 9:53am

आदरणीया राजेश कुमारी जी ... रचना पर आपकी उपस्थिती और स्नेहिल प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ .. बहुत बहुत धन्यवाद

आपके सुझाव सर माथे पर

महरबां शब्द मैंने उर्दू उच्चारण के हिसाब से लिया.. गाते वक़्त भी मे की जगह म ही आ रहा था ..दुसरे मात्राओं में मेहरबां फिट नहीं हो रहा था .. इसलिए थोड़ी सी छूट क्षमासाहित ली है 

अजनबी जबसे देखा हमें इस कदर .. इसमें करता का "ने" गौण रखा था ..

"अजनबी ने हमें देखा" कहने पर २१२ २१२ २२२ हो जा रहा है. और गायन में अटक रहा है 

लेकिन इसे सुधार कर ऐसे कर सकती हूँ 

अजनबी तुमने देखा हमें इस तरह ....ऐसे में "ने" पर मात्रा गिरानी जरुर पड़ती है लेकिन गायन में ठीक जा रहा है 

आपकी अनुमति चाहूंगी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 18, 2015 at 10:08pm

अद्भुत !

आपकी ग़ज़ल की भावदशा से हम बहुत आशान्वित हैं, आदरणीया निधि जी..

बहुत बहुत बधाइयाँ..

बहरहाल, हिन्दी मे लिखा गया मेहरबां शब्द उर्दू उच्चारण के अनुसार से महरबां ही पढ़ा जाता है.

लेकिन ये श्रृंगार कौन सा शब्द है ? शृंगार शब्द शुद्ध है बाकी अशुद्ध अक्षरियाँ हैं जो चलन में हैं.

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 18, 2015 at 10:07pm

आ० निधि जी सुन्दर गजल पर बधाइयाँ!

Comment by Hari Prakash Dubey on March 18, 2015 at 8:53pm

आदरणीया निधि जी सुन्दर ग़ज़ल, बाकी आदरणीया राजेश जी  एवम् आदरणीय मिथिलेश भाई ने कह ही दिया है , इससे इसमें और निखार आ जाएगा , हार्दिक बधाई आपको ! सादर 

Comment by Shyam Mathpal on March 18, 2015 at 8:43pm

सुन्दर ग़ज़ल.

बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 18, 2015 at 8:19pm

आदरणीया निधि जी सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई 

अजनबी जबसे देखा हमें इस तरह  ......... अजनबी ने हमें देखा कुछ इस तरह 

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 18, 2015 at 7:50pm
सुन्दर ग़ज़ल , बधाई, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 18, 2015 at 7:13pm

सुन्दर ग़ज़ल लिखी है निधि जी ,हार्दिक बधाई आपको 

दो बातों में संशय है ---

नींद सपनों पे जब महरबां हो गयी----इसमें आपने  महरबां को २१२ मात्रा में बांधा है किन्तु मेरे हिसाब से सही शब्द मेह्रबां  होता है /उसकी मात्रा २१२ होती है या २२२ होगी  ,बाकी गुणीजन मेरा भी  संशय दूर करेंगे

दूसरा संशय ---अजनबी जबसे देखा हमें इस तरह  ---इसमें अजनबी(कर्ता) के बाद ने की कमी खल रही है इसको इस तरह लिखें तो कैसा रहे ----अजनबी ने हमे देखा जब इस तरह

आपको बहुत बहुत बधाई    

 

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