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कब तक मनाऊँ मैं...............

कब तक मनाऊँ मैं, वो अक्सर रूठ जाते हैं|
गर्दिश में अक्सर.... हर सहारे छूट जाते हैं|1


न मनाने का सलीका है,न रिझाने का तरीका है|
मनाते ही मनाते वो      अक्सर रूठ जाते है|2


संजोकर दिल में रखता हूँ,नजर को खूब पढ़ता हूँ|
मगर खास होते ही   ,अक्सर नजारे छूट जाते हैं|3


आयना समझकर हम.., उन्ही को देख जाते हैं|
संभालने की ही कोशिश में,जो अक्सर टूट जाते हैं|4


सब्र करता हूँ कि मेरे शब्दों में खामी हैं |
नारी अनबन से घरों में,अक्सर मुहारे फ़ूट जाते हैं|5


कब तक मनाऊँ मैं, वो अक्सर रूठ जाते हैं|
पढ़कर हमीं को ,दोस्त पुराने लूट जाते हैं|6
कब तक मनाऊँ मैं........................................

@आनद 08/02/2015   "मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by rajesh kumari on February 12, 2015 at 11:22am

अच्छी रचना है ,बहुत- बहुत बधाई आप प्रयास करते रहिये ग़ज़ल लिखने में एक दिन कामयाब होंगे बहरहाल शुभकामनायें 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 12, 2015 at 10:59am

आनंद जी

बहुत अच्छा कहा आपने i सस्नेह i

Comment by khursheed khairadi on February 10, 2015 at 11:37pm

आदरणीय आनंद मूर्थी जी |उम्दा ग़ज़ल हुई है |सादर अभिनन्दन |

Comment by Hari Prakash Dubey on February 10, 2015 at 7:23pm

कब तक मनाऊँ मैं, वो अक्सर रूठ जाते हैं
पढ़कर हमीं को ,दोस्त पुराने लूट जाते है|....

शुभकामनायें , आपको !

Comment by maharshi tripathi on February 10, 2015 at 5:07pm

अच्छी प्रयास पर आपको बधाई |


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2015 at 11:35am

आदरणीय , एक अच्छा प्रयास के लिये बधाइयाँ । 

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 10, 2015 at 6:31am
सुन्दर प्रयास , बधाई, सादर।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2015 at 12:58am

प्रयास और प्रस्तुति पर बधाई. 

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