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“अब पर्वतों पर पत्थर उगा करतें हैं”

लेकर बेठे हो, सारी नदियाँ

अनंत मूल्यवान, वनस्पतियाँ

भरपूर वन्य-जीव प्रजातियाँ   

दिव्य देवताओं की, सम्पतियाँ

फिर भी करते  रहते हो तुम

हरे भरे हिमालय,  के लिए

आन्दोलन पर  आन्दोलन

दिल्ली दरबार, वातानुकूलित कमरे

निशा में, आचमन पर आचमन

हमसे पूछो, हम कैसे जीते हैं

अपनी आँखों के आंसू पीते हैं

यहाँ सूख चुकी सारी नदियाँ

नष्ट हो गयी वनस्पतियाँ

लुप्तप्राय वन्य जीव प्रजातियाँ

लुट गयी  देवों की सम्पतियाँ             

अब तुम हमको न बहलाओ

थोड़ी कृपा हम पर बरसाओ

हमारे जख्मों पर मरहम लगाओ

खुशनसीब हो तुम्हारे यहाँ

देवी और  देवता रहा करतें हैं

हमारे यहाँ तो अब पर्वतों पर

पत्थर उगा करते हैं !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 8, 2015 at 11:56am

थोड़ी कृपा हम पर बरसाओ

हमारे जख्मों पर मरहम लगाओ

खुशनसीब हो तुम्हारे यहाँ

देवी और  देवता रहा करतें हैं

हमारे यहाँ तो अब पर्वतों पर

पत्थर उगा करते हैं !!-------------------ahut achchee bhavpurn kavita i

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2015 at 11:17am

आदरणीय भाई हरी प्रकाश जी , इस सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई .

Comment by Hari Prakash Dubey on January 8, 2015 at 10:12am

शिशिर जी , रचना पर आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार ! 

Comment by Shishir Dwivedi on January 7, 2015 at 10:40pm
बहुत सुन्दर कविता है । अच्छा लगा पढ़ कर की अभी भी ऐसे कवी है जो अपनी सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर को संजोये हुए हैं।
Comment by Hari Prakash Dubey on January 7, 2015 at 9:13pm

आदरणीय हरिवल्लभ शर्मा सर ,सार्थक , बौद्धिक और विचारणीय प्रतिक्रिया के लिए आपका  अतिशय हार्दिक आभार !

Comment by harivallabh sharma on January 7, 2015 at 8:23pm

आदरणीय Hari Prakash Dubey जी बहुत सुन्दर रचना आपकी , सामाजिक राजनैतिक विकृतियों का प्रभाव मनुजमन पर चिंतन पर होना सहज है..आपकी कलम से यह मर्म निकला है..सब नष्ट प्राय हो रहा ..

खुशनसीब हो तुम्हारे यहाँ

देवी और  देवता रहा करतें हैं

हमारे यहाँ तो अब पर्वतों पर

पत्थर उगा करते हैं !!...सुन्दर रचना हेतु बधाई आपको...सादर.

Comment by Hari Prakash Dubey on January 7, 2015 at 8:21pm

आपका बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश जी ! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2015 at 8:04pm
सुन्दर रचनाके लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी
Comment by Hari Prakash Dubey on January 7, 2015 at 7:44pm

सोचता हूँ कभी कभी ,
पत्थर न होते तो शायद
आदमी भी पत्थर न होते ,
सिर्फ आदमी होते।.....क्या खूब कहा आपने .. आदरणीय विजय शंकर सर , रचना पर आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार ! सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 7, 2015 at 7:37pm
सोचता हूँ कभी कभी ,
पत्थर न होते तो शायद
आदमी भी पत्थर न होते ,
सिर्फ आदमी होते।
आपका अनुरोध अच्छा है , उन तक पहुंचे।
रचना हेतु बधाई आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी। सादर।

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