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2122 1122 22

खुद से यूँ आप वफ़ा कर चलिये

गाह सच को न छुपा कर चलिये

 

मैं इबादत में करूँ सजदे आप

दैर पर शीश नवा कर चलिये

 

दिल में भर जाये सड़न ही न कहीं

नफ़रतें दिल से हटा कर चलिये

 

चलिये महका के ज़माने भर को

प्यार का फूल खिला कर चलिये

 

कीजिये अम्न की कोशिश यों भी

हक़ में इंसाँ के दुआ कर चलिये

 

क्यूँ रहे हुस्न ही पर्दे में जनाब

आप भी नज़रें झुका कर चलिये

 

अब तलक ज़ख़्म कहीं बाकी है

बेवजह दिल न दुखा कर चलिये

 

बुझ रहा है तो इसे बुझने दें

यूँ शरर को न हवा कर चलिये

 

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on October 28, 2014 at 9:46pm

बहुत सुन्दर , बधाई आदरणीय शिज्जु शकूर जी। 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 28, 2014 at 11:30am

वाह वाह क्या बात भाई जी 

Comment by gumnaam pithoragarhi on October 27, 2014 at 8:08pm
बहुत खूब ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, गजल पर आपको दिल से बधाई
Comment by Shyam Narain Verma on October 27, 2014 at 11:47am

सुन्दर गज़ल .... सादर बधाई.....

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 27, 2014 at 10:19am

सारे के सारे अशआर बहुत खूब कहे है आदरणीय शिज्जू जी. इस बेमिसाल गजल पर आपको दिल से बधाई

Comment by somesh kumar on October 26, 2014 at 10:33pm

क्यों रहे हुस्न पर्दे में जनाब - - ये शे'र बेहद पसंद आया पर समस्त गज़ल ही बेहद दिल-अजीज लगी 

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