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महज पाना किसी को भी मुहब्बत तो नहीं होती - ग़ज़ल

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1222 1222 1222 1222

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हुआ    जाता    नहीं   बच्चा   कभी   यारो   मचलने   से

नहीं    सूरत    बदलती   है   कभी   दरपन   बदलने   से

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जला  ले  खुद  को  दीपक  सा  उजाला   हो   ही  जायेगा

मना   करने   लगे   तुझको  अगर  सूरज  निकलने  से

***

हमारी   सादगी   है   ये   भरोसा   फिर   जो   करते   हैं

कभी  तो  बाज  आजा  तू  सियासत  हमको  छलने  से

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बता  बदनाम  करता  क्यों  पतित  है  बोल अब मुझको

न  रोका  जब  कभी  तूने   यहाँ   मुझको  फिसलने  से

***

पता   है   तू   भुजंगों  में   तेरी   फितरत   विषैली   है

मैं   चंदन   हूँ  न   बदलूंगा   जहर   तेरे   उगलने   से

***

मुझे  तो  घोर  तम  देता,  नहीं तुझ  सी  समझ  मेरी

उजाला  तुझको  लगता  हो भले  ही  घर  के  जलने से

***

महज  पाना  किसी   को  भी  मुहब्बत  तो  नहीं  होती

समझ मत हमसफर मुझको ‘मुसाफिर’ साथ चलने से

***

रचना- 13 दिसम्बर 2005

***

रचना मौलिक व अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 18, 2014 at 9:20am

आदरणीय भाई गोपाल नारायण जी , गजल का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन करने हेतु हार्दिक धन्यवाद . अगर ग़ज़ल अच्छी बन पड़ी है तो यह आप सभी प्रबुद्ध जानो का आशीर्वाद ही है जो शब्दों और भावो का तारतम्य बिठाने में मदद करता है . आप लोगों केस्नेह और आशीष के बिना शायद यह संभव न होता . आशा है आप सभी का स्नेह इसी प्रकार मिलता रहेगा .


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Comment by rajesh kumari on June 17, 2014 at 9:06pm

पता   है   तू   भुजंगों  में   तेरी   फितरत   विषैली   है

मैं   चंदन   हूँ  न   बदलूंगा   जहर   तेरे   उगलने   से-----वाह्ह्ह्ह बहुत सुन्दर शेर 

बढ़िया ग़ज़ल हुई आ० लक्ष्मण धामी जी बहुत बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 17, 2014 at 8:21pm
मोहब्बत को कहाँ कोई कैद कर पाया ,
मोहब्बर तो खुद एक कैदखाना होती है ।
बहुत सुन्दर प्रिय लक्ष्मण जी,
बधाई , इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए ,
सादर.
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 17, 2014 at 1:52pm

धामी जी

क्या बात है ? बहुत सुन्दर i मक्ता ही नहीं गजल भी i  मै चंदन हूँ न बदलूँगा ---- वाह --- i

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