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​गजल: रक्खा है तेरे नाम के पन्ने को मोड़ कर//शकील जमशेदपुरी//

बह्र: 221 2121 1221 212

___________________________________


बिखरे हुए गुलाब की पत्ती को जोड़ कर
रक्खा है तेरे नाम के पन्ने को मोड़ कर

शबनम लगा दी फूल ने भवरे की गाल पे
भवरे ने रख दी गुल की कलाई मरोड़ कर

मुड़-मुड़ के जाते वक्त मुझे देख क्यों रही
जब प्यार ही नहीं तो चली जाओ छोड़ कर

उसने कही ये बात तो गम और बढ़ गया
खुश मैं भी अब नहीं हूं तेरे दिल को तोड़ कर

नफरत को इसलिए तू अखरने लगा ‘शकील’
रख दी गजल में तूने मुहब्बत निचोड़ कर

- शकील जमशेदपुरी

____________________________

*मौलिक एंव अप्रकाशित

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 18, 2013 at 8:40pm

भाई वाह, मतला से लेकर मकता तक गज़ब की ग़ज़ल हुई है, मैं तरन्नुम में पढ़ गया, अच्छी लगी यह प्रस्तुति , बधाई कुबूल करें । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 18, 2013 at 8:35pm

आदरणीय शकील भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही है !!! आपको बहुत बधाई !!!!

नफरत को इसलिए तू अखरने लगा ‘शकील’
रख दी गजल में तूने मुहब्बत निचोड़ कर ---------------------लाजवाब मक्ता कहे  भाई ..... ढेरों दाद !!!!!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 18, 2013 at 8:19pm

अरे वाह !!!!  .  ग़ज़ब !! ग़ज़ब !!! ग़ज़ब !!!

पूरी ग़ज़ल वाह-वा हुई है. 

एक बात :

गाल को पुल्लिंग कर लें, भाई.   और, भवरा शब्द भँवरा होता है.

शुभ-शुभ

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 18, 2013 at 6:26pm

बहुत खूब। बधाई शकील भाई ।

Comment by शकील समर on October 18, 2013 at 6:10pm

दुरुस्त फरमाया आपने आदरणीय Ajeet Sharma 'Aakash' जी। इस त्रुटि की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए धन्यवाद।

Comment by अजीत शर्मा 'आकाश' on October 18, 2013 at 6:06pm

अच्छी ग़ज़ल शकील भाई !!! ..... 'गाल' पुल्लिंग शब्द है, ऐसा मुझे लगता है ... नहीं ??? ..... अच्छी ग़ज़ल के लिए  साधुवाद !!!

Comment by शकील समर on October 18, 2013 at 5:19pm

आभार आ. गीतिका 'वेदिका' जी.

Comment by वेदिका on October 18, 2013 at 4:58pm

मुड़-मुड़ के जाते वक्त मुझे देख क्यों रही
जब प्यार ही नहीं तो चली जाओ छोड़ कर,, इस शेअर के क्या कहने! बधाई शकील भाई!

Comment by शकील समर on October 18, 2013 at 2:23pm

हौसला बढ़ाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय Abhinav Arun जी

Comment by Abhinav Arun on October 18, 2013 at 2:18pm

मुड़-मुड़ के जाते वक्त मुझे देख क्यों रही
जब प्यार ही नहीं तो चली जाओ छोड़ कर...क्या कहने बहुत खूब आ- शकील जी बहुत बधाई !! भावपूर्ण मधुर ग़ज़ल हुई है !!

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