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ग़ज़ल: भेषभूषा मान मर्यादा ख़तम

बह्र : रमल मुसद्दस महजूफ

वज्न : 2122, 2122, 212

........................................

सभ्यता सम्मान अपनापन गया,

आदमी शैतान जबसे बन गया,

भेषभूषा मान मर्यादा ख़तम,

ज्ञान गुण आदर कि अनुशासन गया,

रोग से हो ग्रस्त विचलित भूख से,

मौत के काँधे पे चढ़ निर्धन गया,

आसमां की चाह जबसे हो गई,

चैन का हाथो से छुट दामन गया,

परवरिश का जबसे बदला ढंग है,

खिलखिलाता फूल सा बचपन गया,

बाप को बेटा नसीहत दे कहे,

मैं हुआ बालिग जहाँ शासन गया,

सौ बरस की उम्र होती थी कभी,

आजकल तो साठ में जीवन गया,

देश की तस्वीर बदली इस कदर,

जुर्म का सीना उभर के तन गया..

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by MAHIMA SHREE on October 14, 2013 at 10:30pm

परवरिश का जबसे बदला ढंग है,

खिलखिलाता फूल सा बचपन गया,

 

देश की तस्वीर बदली इस कदर,

जुर्म का सीना उभर के तन गया.. वाह बहुत ही बढ़िया .. हार्दिक बधाई आपको

 

 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 14, 2013 at 9:41pm

आसमां की चाह जबसे हो गई,

चैन का हाथो से छुट दामन गया,

परवरिश का जबसे बदला ढंग है,

खिलखिलाता फूल सा बचपन गया,

 .आदरणीय अरुण जी बेहतरीन इस ग़ज़ल के ये दो अशार मुझे एक नयी ताजगी से भरे लगे ..इस बेहतरीन ग़ज़ल पर मेरी तरफ से हार्दिक बधाई स्वीकारें 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 14, 2013 at 8:36pm

आसमां की चाह जबसे हो गई,

चैन का हाथो से छुट दामन गया,.......वाह! बहुत खूब  सटीक बात
सौ बरस की उम्र होती थी कभी,

आजकल तो साठ में जीवन गया,.......क्या कहने, शानदार

बहुत शानदार गजल, दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय अरुण अनंत जी

Comment by Abhinav Arun on October 14, 2013 at 7:16pm

देश की तस्वीर बदली इस कदर,

जुर्म का सीना उभर के तन गया..

              ..एक शानदार सम्पूर्ण ग़ज़ल अरुण जी हार्दिक बधाई आपको !

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 14, 2013 at 6:11pm

परवरिश का जबसे बदला ढंग है,

खिलखिलाता फूल सा बचपन गया, 

इस कांनवेंन्टी संस्कृति ने बच्चों से बचपना छीन लिया है , और बड़ा होकर वही शैतान बन रहा है।  बधाई अरुण शर्माजी कटु  सत्य  के लिए ।

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 14, 2013 at 4:26pm

हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज जी ग़ज़ल आपको पसंद आई लेखन कार्य सार्थक हुआ, स्नेह यूँ ही बना रहे


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 14, 2013 at 3:07pm

आदरणीय अरुन अनंत भाई , देश की वर्तमान , सांकृतिक , आर्थिक , सामजिक सभी स्थितियों समेटी हुई आपने बहुत सुन्दर गज़ल कही है !!! हर शेर लाजवब हैं !!!! दिली दाद कुबूल करें !!!

आसमां की चाह जबसे हो गई,

चैन का हाथो से छुट दामन गया,

देश की तस्वीर बदली इस कदर,
जुर्म का सीना उभर के तन गया ----------- अलग से ढेरों दाद !!!!

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