For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

टिफिन में कैद रूह

हम क्या हैं
सिर्फ पैसा बनाने की मशीन भर न !

इसके लिए पांच बजे उठ कर
करने लगते हैं जतन
चाहे लगे न मन
थका बदन
ऐंठ-ऊँठ कर करते तैयार
खाके रोटियाँ चार
निकल पड़ते टिफिन बॉक्स में कैद होकर
पराठों की तरह बासी होने की प्रक्रिया में
सूरज की उठान की ऊर्जा
कर देते न्योछावर नौकरी को
और शाम के तेज-हीन सूर्य से ढले-ढले
लौटते जब काम से
तो पास रहती थकावट, चिडचिडाहट,
उदासी और मायूसी की परछाइयां
बैठ जातीं कागज़ के कोरे पन्नों पर....

और आप
ऐसे में उम्मीद करते हैं कि
मैं लिक्खूं कवितायें
आशाओं भरी
ऊर्जा भरी...?

 (मौलिक अप्रकाशित)

Views: 473

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by anwar suhail on October 6, 2013 at 8:07pm

चूंकि मैंने दूसरा ड्राफ्ट प्रकाशित किया है, मैं इस नज़्म पर और काम करूँगा...आप सभी का आभार...सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 6, 2013 at 3:41pm

आम आदमी की रोज़मर्रा की उबाऊ ज़िंदगी.. जैसे सिर्फ पैसा कमाने की बाध्यता के चलते, किसी रिमोट से जैसे मशीनी मानव चल रहा हो... ऐसे में ह्रदय से संवेदनाओं का मिटता जाना सुन्दरता से प्रस्तुत किया है 

अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक शुभकामनाएं 

Comment by vijay nikore on October 6, 2013 at 3:08am

बेहद खूबसूरत रचना के लिए बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by वेदिका on October 5, 2013 at 11:38pm

ज़िंदगी की रफ्तार मे दिन रात की थकान और फिर ज़िंदगी ..... 

बहुत खूब !!

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 5, 2013 at 9:09pm

अति उम्दा रचना है आपकी ! बधाई आपको और उम्मीद बढ़ गयी है ऐसी ही बेहतरीन रचनाये पढने की !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 5, 2013 at 12:18am

ओह.. !!  कविता ने रशे-रेशे की पीर का बथना उजागर कर दिया है. मशीनी ज़िन्दग़ी फ़ैक्ट्री की भट्ठी में अपनी सोच और हुलास को झोंकती रोज़ धुक रही है. और रीतती हुई उम्र ऊब, खीझ, टीस और वही-वहीपन के दर्राते दाँतदार पहियों से निचुड़ रही है. कलम और ज़िन्दग़ी के एक मज़दूर के दर्द और उसकी निराशा को अभिव्यक्त करती इस रचना के लिए बधाई..

Comment by annapurna bajpai on October 4, 2013 at 11:44pm

क्या खूब रही ? टिफिन मे कैद रूह !! बढिया दिल को छूती रचना । 

Comment by Sushil.Joshi on October 4, 2013 at 9:50pm

वाह वाह आदरणीय अनवर भाई..... सचमुच यही सच्चाई है आजकल.... और हम लोगों का यही दिनक्रम है.... लेकिन एक कवि मन को कभी हताश नहीं होना चाहिए भाई जी..... ऐसे में तो हमें ज़रूरत है सभी को ऊर्जावान करने की..... कहते हैं ना... जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि..... वैसे सच्चाई को व्यक्त करती इस रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 4, 2013 at 9:39pm

आदरणीय अनवर भाई , हर मध्यम वर्ग  के लिये यही सच्चाई है !! सुन्दर रचना के लिये बधाई !!

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on शिज्जु "शकूर"'s blog post ग़ज़ल: मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है
"आदरणीय शिज्जु भाई , क्या बात है , बहुत अरसे बाद आपकी ग़ज़ल पढ़ा रहा हूँ , आपने खूब उन्नति की है …"
46 minutes ago

सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" posted a blog post

ग़ज़ल: मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है

1212 1122 1212 22/112मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना हैमगर सँभल के रह-ए-ज़ीस्त से गुज़रना हैमैं…See More
2 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी posted a blog post

ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)

122 - 122 - 122 - 122 जो उठते धुएँ को ही पहचान लेतेतो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते*न तिनके जलाते…See More
2 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधकह दूँ मन की बात या, सुनूँ तुम्हारी बात ।क्या जाने कल वक्त के, कैसे हों…See More
2 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on Mayank Kumar Dwivedi's blog post ग़ज़ल
""रोज़ कहता हूँ जिसे मान लूँ मुर्दा कैसे" "
3 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on Mayank Kumar Dwivedi's blog post ग़ज़ल
"जनाब मयंक जी ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें, गुणीजनों की बातों का संज्ञान…"
3 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Ashok Kumar Raktale's blog post मनहरण घनाक्षरी
"आदरणीय अशोक भाई , प्रवाहमय सुन्दर छंद रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई "
4 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय बागपतवी  भाई , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक  आभार "
4 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आदाब, ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएँ, गुणीजनों की इस्लाह से ग़ज़ल…"
4 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय शिज्जु "शकूर" साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
12 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद, इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
12 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आदाब,  ग़ज़ल पर आपकी आमद बाइस-ए-शरफ़ है और आपकी तारीफें वो ए'ज़ाज़…"
12 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service