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वक्त के सिरहाने पर ......

वक्त के सिरहाने पर .........

वक्त के सिरहाने पर बैठा
देखता रहा मैं देर तक
दर्द की दहलीज पर
मिलने और बिछुड़ने की
रक्स करती परछाइयों को

जाने कितने वादे
कसमों की चौखट पर
चरमरा रहे थे 

अरसा हुआ बिछड़े हुए
मगर उल्फ़त के
ज़ख्म आज भी हरे हैं

तुम्हारी बात
शायद ठीक ही थी कि
मोहब्बत अगर बढ़ नहीं पाती
माहताब की मानिंद घटते-घटते
एक ख़्वाब बनकर रह जाती है
और
वक्त के सिरहाने पर
रेशमी अहसास दर्द के पैरहन में
कसमसा के रह जाते हैं

सुशील सरना / 22-9-21
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 9, 2021 at 5:48pm

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई ।

Comment by Sushil Sarna on October 9, 2021 at 4:45pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सादर प्रणाम सर सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 6, 2021 at 5:18pm

इस भावमय रचना के लिए बधाई, आदरणीय सुशील सरना जी. 

Comment by Sushil Sarna on October 3, 2021 at 4:28pm
आदरणीय समर कबीर साहब , आदाब, सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर
Comment by Samar kabeer on September 27, 2021 at 4:13pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Sushil Sarna on September 23, 2021 at 8:43pm
आदरणीय अमीरुद्दीन साहिब, आदाब - सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय ।बहुत सुंदर सुझाव सर ।मैं अभी एडिट करता हूँ ।सर ।
Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 23, 2021 at 7:25pm

वाह, बहुत ख़ूब! जनाब सुशील सरना जी आदाब, भावपूर्ण सुंदर रचना हुई है बधाई स्वीकार करें।

'देखता रहा मैं देर तक' के संदर्भ में देखें - 

जाने कितने वादे

कसमों की चौखट पर

चरमरा रहे थे     (मेरे ख़याल से)   सादर।

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