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1

बिन जाने ह्रदय की पीड़ा पिया , दिल तोड़ के ऐसे जाते हो
मैं बैठी राह को तकती यहाँ, मुह मोड़ के ऐसे जाते हो
क्यूँ रूठे हो जरा हमसे कहो, बिन बात के कैसे जानूं मैं
प्रिय मेरे साथ में तुम थे चले, अब छोड़ के ऐसे जाते हो

2

धरा रंगीन लगती है खिलें जब फूल बगिया में
यही संगीन लगती है चुभें जब शूल बगिया में
गुलाबी ये छटा तुम देख के यूँ फस नहीं जाना
छलावे के अलावा कुछ नहीं मौसूल बगिया में

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Comment

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Comment by UMASHANKER MISHRA on June 3, 2012 at 10:30am

बहुत बढ़िया

Comment by Ashok Kumar Raktale on June 1, 2012 at 9:20pm

दोनों ही बढ़िया मुक्तक. बधाई संदीप जी.

Comment by Abhinav Arun on May 26, 2012 at 2:59pm

पढ़ कर मन उपवन बाग़  बाग़  हो गया हार्दिक बधाई आपको दोनों मुक्तक बहुत प्रभावी है !!

Comment by आशीष यादव on May 26, 2012 at 9:35am

दोनो मुक्तक शानदार है।
बधाई स्वीकारें

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 25, 2012 at 11:39pm

क्यूँ रूठे हो जरा हमसे कहो, बिन बात के कैसे जानूं मैं
प्रिय मेरे साथ में तुम थे चले, अब छोड़ के ऐसे जाते हो

सुन्दर ..गुनगुनाने को मन करता है ....अब तो बोल भी दो ....भ्रमर ५ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 25, 2012 at 1:22pm

सुन्दर प्रवाहयुक्त मुक्तक 

Comment by Yogi Saraswat on May 25, 2012 at 11:48am

धरा रंगीन लगती है खिलें जब फूल बगिया में
यही संगीन लगती है चुभें जब शूल बगिया में
गुलाबी ये छटा तुम देख के यूँ फस नहीं जाना
छलावे के अलावा कुछ नहीं मौसूल बगिया में

बहुत ही बढ़िया पंक्तियाँ !

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 24, 2012 at 5:41pm

 आदरणीय संदीप  जी, सादर 

दूसरा पहले पे भारी 
पहला दूसरे पे भारी 
कैसे अलग करून इनको 
आपके लेखन पे वारी
बधाई. 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 24, 2012 at 5:08pm

वाह वाह, क्या बात है, दोनों मुक्तक कमाल के हैं, बहुत ही सुन्दर प्रवाह, बधाई स्वीकार हो संदीप जी |

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