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ग़ज़ल - चाहे आँखों लगी, आग तो आग है.. // --सौरभ

२१२ २१२ २१२ २१२

 

फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
 
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
 
लौट आया शरद जान कर रात को
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी
 
उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी
 
है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी
 
चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी
  
फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी
 
नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी
*****************
-सौरभ

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Comment by Samar kabeer on October 9, 2017 at 8:46pm
अफ़रोज़ भाई,इस ग़ज़ल में मक़्ता कहाँ है ?ग़ज़ल के आख़री शैर को मक़्ता नहीं कहते,मक़्ता उस शैर को कहते हैं जिसमें शाइर का तखल्लुस होता है ।
Comment by Afroz 'sahr' on October 9, 2017 at 5:43pm
आदरणीय सौरभ जी आदाब मतले के बाद मक्ता ""नौनिहालों की आंखों के सपने लिए
बाप इकजुट गया, दुपहरी खिल उठी""
मुझे बेहद पसंद आया क्यूँ की देखा ये गया है की ग़ज़लों में अधिकांश ग़ज़लकार "माँ" को किरदार बना कर बहुत कुछ कहते रहें हैं । और कहते रहें चूँ की माँ नेमत ही ऐसी है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। लेकिन बाप का किरदार अमुमन ग़ज़लों में बहुत ही कम नुमायां हुआ है। बाप , का त्याग , मेहनतें, स्नेह और संतान के भविष्य के लिए अपने वजूद को कुर्बान कर देने के ज़ज़्बे के पीछे छुपे एहसास को सिर्फ़ एक बाप ही समझ सकता है। यकी़नन पिता रूपी पेड़ का साया संतान के लिए उतना ही आवश्यक और अनमोल है जितना की एक माँ की अगाध ममता,, आदरणीय सौरभ जी आपके मक्ते में मुझ जैसे असंख्य पिताओं की भावनाओं का सम्मान बोल रहा है पुन: हार्दिक बधाई आपको सादर,,,,
Comment by Afroz 'sahr' on October 9, 2017 at 4:54pm

आदरणीय सौरभ जी आदाब आपकी इस रचना के यूँ तो सभी अश्आर अच्छे हैं । ले किन ख़ास तौर से मतला और मक्ता मुझे ज़ाती तौर पर बहुत भाए। मतला""फिर जगी आसतो चाह भी खिल उठी"
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी"" का किरदार में अपने आपको पाता हूँ । क्यूँ की हताशा के भँवर में फंसे पात्र के मन में यदि कोई सकारात्मक भाव किसी भी स्रोत से आ जाए तो फिर नई उमंगें हिलोर लेने लगती हैं और उत्साह का नया संचार बिखरे हूए जीवन को फिर से समेटने में सहायक सिद्ध होता है । और जीवन में ऐसे हालातों से लगभग सभी को दो चार होना पड़ता है । निजी रूप से ऐसे हालात का मैंने बारहा तज्रिबा क्या है । यही कारण है की मतले का पात्र में ख़ुद को पा रहा हूँ। जारी,,,,,, सादर,,,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 9, 2017 at 3:19pm

धन्यवाद आदरणीय सुशील सरना जी. आपने इस ग़ज़ल को समय दिया .. शुभ-शुभ

Comment by Sushil Sarna on October 9, 2017 at 3:18pm

फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी

दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी

वाह आदरणीय सौरभ सर वाह ... बहुत ही खूबसूरत,सार्थक और दिलकश अंदाज़ में पेश इस ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें सर।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 9, 2017 at 3:18pm

भाई दिनेश जी, आप तो सही ही हैं. फिर दिक्कत क्या है ?

Comment by Sushil Sarna on October 9, 2017 at 3:10pm

फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी

दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी

वाह आदरणीय सौरभ सर वाह ... बहुत ही खूबसूरत,सार्थक और दिलकश अंदाज़ में पेश इस ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें सर।

Comment by दिनेश कुमार on October 9, 2017 at 3:09pm

पुलिंग के लिये सर।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 9, 2017 at 2:52pm

//है मुआ ढीठ भी,... मुआ पुलिंग के लिए use हुआ है या स्त्रीलिंग ले लिए ? //

हम्म .. 

आपको क्या लगता है, आदरणीय ? ये शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ होगा ?

Comment by दिनेश कुमार on October 9, 2017 at 1:34pm

एक प्रश्न सहसा उठा। हालाँकि मेरी हिंदी भी कमज़ोर है।
है मुआ ढीठ भी,... मुआ पुलिंग के लिए use हुआ है या स्त्रीलिंग ले लिए ? सर

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