परोथन – लघुकथा -
"अरे छुटकी, देख तो कौन है दरवाजे पर"?
"कोई भिखारिन जैसी लड़की है अम्मा"।
"बिटिया, एक कटोरा गेंहू दे दे उसे”|
“अम्मा, वह तो बोल रही है कि उसे केवल आटा ही चाहिये”।
"अरे तो क्या हुआ छुटकी, एक कटोरा आटा ही दे दे बेचारी को"।
"पर अम्मा, आटा तो एक बार के लिये ही था तो सारा गूँथ लिया"।
"एक कटोरा भी नहीं बचा क्या"?
"ऐसे तो है, एक कटोरा, पर वह परोथन के लिये है"।
"अरे तो वही देदे मेरी बच्ची। हम लोग एक दिन बिना परोथन की, हाथ की रोटी खा लेंगे"।
"अम्मा, हमारे से नहीं बनती बिना परोथन की रोटी। हम केवल परोथन वाले फ़ुलके हीबना पाते हैं"।
"कोई बात नहीं बिटिया। आज हम बना देंगे हाथ की रोटी"।
"पर अम्मा, आपको तो चूल्हे पर ज़मींन पर बैठने में घुटना दर्द करता है"।
"एक ही दिन की तो बात है , झेल लेंगे थोड़ी तक़लीफ़"।
"पर उसको आटा देना इतना ज़रूरी है क्या"?
"हाँ बिटिया, नवरात्रे में दरवाजे से कोई कन्या खाली हाथ लौट जाय तो अशुभ होता है"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
अच्छी कथा हुई है आदरणीय तेज वीर सिंह जी | हार्दिक बधाई |
आदरणीय तेजवीर जी ..धार्मिक आस्था को बखूबी चित्रित करती शानदार लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई सादर
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