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ख़िज़ाओं का नहीं होता दरख़्तों पर असर कोई (ग़ज़ल)

1222 1222 1222 1222

गया है सींचकर जो बाग़-ए-दिल को, इक नज़र कोई
ख़िज़ाओं का नहीं होता दरख़्तों पर असर कोई

दिलों के दरमिया इक़रार कोई हो गया था,पर
न थी उनको ख़बर कोई, नहीं मुझको ख़बर कोई

मुक़द्दर हर किसी पे मेह्रबां होता नहीं यारो
कहीं क़दमों में है मंज़िल, भटकता दर-ब-दर कोई

भरोसा है हमें चारागरी पर हद से भी ज़्यादा
मरीज़-ए-इश्क़ पालेगा न मर्ज़ अब उम्र-भर कोई

सियासत खून पीने की बड़ी शौक़ीन लगती है
छुड़ा पाता ये चस्का खून का ऐ काश अगर कोई

तड़पकर-चीखकर इंसानियत, है आज मरणासन्न
कोई देता नहीं क्यों,दे ही दे अब तो ज़हर कोई

ख़लिश-कांटो भरी है, जो डगर जाती ख़ियाबां तक
न राह-ए-क़ामयाबी है अब इससे मुख़्तसर कोई
================================

जयनित कुमार मेहता
(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 910

Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 23, 2016 at 1:44pm

बहुत ख़ूब जयनित साहब, अच्छी ग़ज़ल हुई है। दाद कुबूल करें।

Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2016 at 9:49pm
आदरणीय मुकेश श्रीवास्तव जी, बहुत-बहुत आभार प्रकट करता हूँ आपके प्रति।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2016 at 9:16pm
जनाब सालिम शेख साहब, बहुत बहुत आभार आपका।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2016 at 9:06pm
आदरणीय केवल प्रसाद जी,हृदय से आभारी हूँ आपका।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2016 at 9:04pm
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,
आपकी सराहनात्मक प्रतिक्रिया से मेरा लिखना सार्थक हुआ।
आशीर्वाद बना रहे आपका।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2016 at 9:01pm
आपका सदैव स्वागत है आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब।।
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 6, 2016 at 8:24am

''तड़पकर-चीखकर इंसानियत, है आज मरणासन्न
कोई देता नहीं क्यों,दे ही दे अब तो ज़हर कोई''    क्या बात है.....बहुत ही धारदार गज़ल के लिये दाद कुबूल फरमाएं. जयनित भाई जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 6, 2016 at 1:30am

भाई मज़ा आ गया ! 

दाद दाद दाद !!

आपके हौसले की दाद देता हूँ ! 

दिलों के दरमिया इक़रार कोई हो गया था,पर
न थी उनको ख़बर कोई, नहीं मुझको ख़बर कोई

कमाल !

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on February 5, 2016 at 9:43pm

जनाब रवि साहिब और जयनित   कुमार साहिब ,  अलिफ़ -वस्ल के नियम को मैं शायरी में कम ही इस्तेमाल करता हूँ / उसके हिसाब से मिसरे  बह्र में हैं। ...... शुक्रिया

Comment by जयनित कुमार मेहता on February 5, 2016 at 9:02pm
आदरणीय समर कबीर जी,
अब से उर्दू शब्दों का प्रयोग करते समय सावधानी बरतूंगा..
आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ,शुक्रिया।।

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