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गज़ल - ग़म किसी का किसी की राहत है - गिरिराज भंडारी

2122  1212   22  /112

क्या नहीं ये अजीब हसरत है ?

ग़म किसी का किसी की राहत है

 

ख़ाक में हम मिलाना चाहें जिसे

उनको ही सारी बादशाहत है

 

रोटी कपड़ा मकान में फँसकर

बुजदिली, हो चुकी शराफत है

 

हर्फ करते हैं प्यार की बातें

आँखें कहतीं हैं, तुमसे नफरत है

 

मुज़रिमों को मिले कई इनआम

आज मजलूम की ये क़िस्मत है

 

बेरहम क़ातिलों को मौत मिली

सेक्युलर कह रहे , शहादत है

 

हाँ, ख़ुदा भी कहीं पे है लेकिन  

देश हित ही सही इबादत है

 

आइना हो के भी तू  है पत्थर

अब अयाँ तो तेरी भी सूरत है   

***************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

Views: 909

Comment

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Comment by Jayprakash Mishra on December 27, 2015 at 7:31pm
Sundar ghazal adarniya Giriraj ji
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 27, 2015 at 7:06pm

मोहतरम गिरिराज साहिब ,  बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। ...... शेर नंबर 2 और 5  का पहला मिसरा देख लीजियेगा। .... शेर नंबर 4 का दूसरा मिसरा। ..... आँखें कहतीं हैं। ... को आँख कहती है। .. करके ज़रूर देखें। ..... एक बार फिर मुबारकबाद 


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 27, 2015 at 2:08pm

आदरणीय श्याम नारायण भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 27, 2015 at 2:07pm

आदरनीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 27, 2015 at 2:07pm

आदरणीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया । आपकी सलाह के लिये आभार , सुधार कर लियाँ हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 27, 2015 at 2:06pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , सराहना के लिये आपका आभार । आपने सही कहा , मिसरा बेबहर है , सुधार रहा हूँ , फिर से देख लीजियेगा ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 26, 2015 at 7:39pm

आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..आपकी जो ग़ज़लें मुझे सबसे जज्यादा पसंद आयीं हैं  उनमे से एक है ये ग़ज़ल ..हर शेर क नयापन लिए हुए ..अंदाज थोडा हट के लगा ..इस ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई स्वीकार करें सादर  

Comment by Shyam Narain Verma on December 26, 2015 at 4:41pm
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें ।
Comment by Samar kabeer on December 24, 2015 at 5:32pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल है,शे'र दर शे'र दाद क़ुबूल करें,
दूसरे नम्बर का शे'र की बह्र और भाव पुनः देख लें,अंतिम शी शे'र में तुम और तेरी का फ़र्क़ देख लें |

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2015 at 3:11pm
आदरणीय गिरिराज सर, बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है। शेर-दर-शेर दाद कुबूल फरमाएं।
//ख़ाक में हम जिसे करना चाहें// इस मिसरे को देख लीजियेगा बह्र के हवाले से।

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