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प्रेम दीपक

 

बंधन में मत बाँध सखी
उन भावों को
जो नित-नित
मानसपट पर चित्रित होते हैं –
स्वप्नों के छंद में बाँध सखी
उन छंदों को
जो पलकों पर पुलकित, अधरों पर बिम्बित होते हैं.

 

नयनों से ढुलके जो दो-चार बूँद सखी
अपने हिय के पत्र-पुष्प पर
टल-मल-टल
उनमें अपनी किरणों को पिरो देना
मेरी पीड़ा के होमकुण्ड में गंगाजल.

जब आग बुझे, कुछ राख उड़े
तम छाए सखी,
उस नीरव हाहाकार को तुम कुचल देना
स्वप्निल रातों में विधु का जब अट्टहास उठे
अपने हृदय के सघन वाष्प से ढँक देना.

अंतिम प्रहर में पल्लव-पुट पर आँसू बरसे
समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना.

.
(मौलिक तथा अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 24, 2014 at 3:10am
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी, आपका हार्दिक आभार. ऐसे ही स्नेह दृष्टि बनाए रखें. सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 22, 2014 at 7:45pm

अंतिम प्रहर में पल्लव-पुट पर आँसू बरसे
समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना.-----दिल से आह निकल जाती है इन मर्मस्पर्शी पंक्तियों को पढ़कर ,कितनी भावपूर्ण रचना लिखी है आपने आ० शरदिंदु जी ,बहुत- बहुत बधाई 

Comment by savitamishra on July 22, 2014 at 12:17pm

खूबसूरत रचना

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 22, 2014 at 10:40am

प्रेम भाव का अद्भुत चित्रण हुआ है आपकी समृद्ध लेखनी के माध्यम से | ऐसा प्रेम भाव जो पलकों पर पुलकित और अधरों 

पर बिम्बित हो | वाह ! बहुत खूब | इस खूबसूरत रचना के लिए आपको अतिशय बधाईयाँ शरदिंदु मुकर्जी | सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 22, 2014 at 2:09am

चिरकाल से.. मानवीय संवेदना की शुद्धतम अभिव्यक्ति नैसर्गिक निवेदन सुसभ्य-सुसंस्कृत रहा नहीं कभी. वह तो निश्छल गंधर्वभाव के वशीभूत आत्मोसर्ग की उच्च भावना से अनुप्राणित होता है. वह न तो शब्दों के संस्कार से अनुशासित होना चाहता है, न भाषा-व्याकरण की निरंकुशता से आतंकित ही होना चाहता है.

निवेदन का एक मात्र हेतु रही है, संप्रेषणजन्य अभिक्रिया !

निर्द्वन्द्व पूजाभाव को जीता हुई संप्रेषणजन्य अभिक्रिया ! शब्दाकार में निबद्ध किन्तु निःशब्दता को जीती हुई संप्रेषणजन्य अभिक्रिया !

आदरणीय शरदिन्दुजी, आपकी इस सरस प्रस्तुति को मैं उपरोक्त भावदशा के आलोक में देख पा रहा हूँ. प्रेमाभास का ऐसा अनगढ़, इतना दिव्य स्वरूप मनोदशा के अति उच्चतर कोशों में जीती वृत्तियों को ही सुलभ हो पाता है.

अंत कभी निर्णायक नहीं बल्कि ऊर्जस्वी समाधि का पर्याय है. उन विह्वल क्षणों में पारस्परिक साहचर्य का परिचायक संयमित भावदीप की प्रत्याशा कोई ’संतुलित चित्त’ योगी ही कर सकता है.

आप प्रस्तुतियों में इस भावदशा को जिलाये रखें, आदरणीय.

बहुत दिनों बाद तो कत्तई नहीं कहूँगा, बल्कि पहली बार... आपकी किसी रचना ने भावदशा के उन क्षणों को साझा किया है जहाँ प्रस्तुतियों के शब्द ही कविता बन जाते हैं. और, ऐसे शब्दों का समुच्चय एक खण्डकाव्य !

अपनी इस प्रस्तुति से आपने इस मंच को समृद्ध किया है आदरणीय.
सादर आभार

Comment by वेदिका on July 20, 2014 at 4:45pm
जब आग बुझे, कुछ राख उड़े
तम छाए सखी,
उस नीरव हाहाकार को तुम कुचल देना
स्वप्निल रातों में विधु का जब अट्टहास उठे
अपने हृदय के सघन वाष्प से ढँक देना.... कितनी शांत चित्त् अभिलाषा और विश्वास से भरपूर
साधूवाद आदरणीय शरदिंदु जी!
Comment by ram shiromani pathak on July 20, 2014 at 2:34pm

मेरी पीड़ा के होमकुण्ड में गंगाजल.

जब आग बुझे, कुछ राख उड़े
तम छाए सखी,
उस नीरव हाहाकार को तुम कुचल देना
स्वप्निल रातों में विधु का जब अट्टहास उठे
अपने हृदय के सघन वाष्प से ढँक देना.

अंतिम प्रहर में पल्लव-पुट पर आँसू बरसे
समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना.//////////////////अनुपम पंक्तियाँ आदरणीय बहुत बहुत बधाई आपको। । सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 20, 2014 at 9:48am

समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना............बहुत मर्मस्पर्शी भाव, कितनी प्यास है..इन पंक्तियों के अंदर.

आदरणीय शरदिंदु सर, आपको बहुत-२ बधाई रचना पर

Comment by Santlal Karun on July 20, 2014 at 7:29am

आदरणीय शरदिंदु मुखर्जी जी,

प्रेम-परिपाक के भावों से भरी ह्रदय को छूती अत्यंत मार्मिक रचना, हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 19, 2014 at 4:39pm

माननीय  प्रणाम

क्या अतृप्ति है  जो दीप जीवन में नहीं जला वह मृत्यु पर ही जल जाय i  ऐसी साध को प्रणाम i

अंतिम प्रहर में पल्लव-पुट पर आँसू बरसे

समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना

जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,

प्रिये, एक बार

बस एक बार,

समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना.

.

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