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प्रार्थना

जब सांझ ढलने लगेगी,
जब दिन का कोलाहल
थक कर किसी कोने में
दुबक कर बैठ जाएगा –
तुम्हारे स्पर्श का सिहरन लिए
धीरे-धीरे
आकाश का सभागार
तारों के दीपक से प्रफुल्लित हो उठेगा,
जागृत हो उठेंगी चेतनाएँ
सजीव होने लगेंगे हृदय के तंतु –
नीरवता के उस महाधिवेशन में
अपने अहंकार,
अपने गौरव की सच्ची-झूठी कहानियाँ,
अपनी अदम्य इच्छाओं की दबी आवाज़,
अपने टूटे सपनों का आर्त चीत्कार
और अचानक, लगभग कुछ अनधिकृत
पा जाने की खुशी की स्तब्धता को समेटकर
मैं बैठा रहूंगा.
जब तुम आओ,
अपने स्पर्श से मेरी अज्ञानता को झंकृत कर,
नए शब्दों की, नए संगीत की
और हरित वेदना की रश्मि डोर पकड़ा देना,
मैं उसके आलोक में
तुम्हारे आनंदमय चरणों तक
स्वयं चलकर आऊंगा मेरे प्रियतम.

.
- (मौलिक तथा अप्रकाशित रचना)

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 20, 2014 at 1:43pm

आदरजब तुम आओ,
अपने स्पर्श से मेरी अज्ञानता को झंकृत कर,
नए शब्दों की, नए संगीत की
और हरित वेदना की रश्मि डोर पकड़ा देना,
मैं उसके आलोक में
तुम्हारे आनंदमय चरणों तक
स्वयं चलकर आऊंगा मेरे प्रियतमणीय शरदिंदु जी

समर्पण भरा स्वागत इतना भावपूर्ण ! अद्भुत !

 

श्रृंगार इतना सभ्य हो तो वह पूजा की वस्तु है i सादर i

 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 20, 2014 at 8:49am

बहुत सुंदर निवेदन. बहुत-२ बधाई स्व्व्कारें आदरणीय शरदिंदु जी

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