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दोष थोड़ा सा समय का कुछ मेरी आवारगी

सीधे-सीधे चल न पायी इसलिए भी जिंदगी

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हम  तुम्हें  कैसे कहें  अब  दूरियों  को  पाट लो

कम न कर पाये जो खुद हम आपसी नाराजगी

**

कल हवा को भी  इजाजत  दी न थी यूँ आपने

आज  क्यों  भाने  लगी   है  गैर की मौजूदगी

**

रात-दिन  करने  पड़ेंगे यूँ जतन कुछ तो हमें

कहने भर से दोस्तों  ये किस्मतें कब हैं जगी

**

घर  जलाकर  आप  नाहक  जा रहे हैं साथ में

ये सियासत तो न होगी आपकी फिर भी सगी

**

पुरअसर होगी ‘मुसाफिर’ के जिगर पर भी सदा

हर गजल  यारो  किसी के प्यार में गर हो पगी

**

(रचना - 17 जनवरी 2010)

मौलिक और अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on July 10, 2014 at 2:16pm
गजल अच्छी है , बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 10, 2014 at 12:40pm

आदरणीय लक्ष्मण सर कहन तो बहुत अच्छी है लेकिन एक बार काफिया बंदी फिर से देख लें क्यूँकि यहाँ आपने "ई" स्वर के साथ "ग" व्यंजन बतौर काफिया लिया है जिससे "गी" शब्द की पुनरावृत्ति से यह काफिया न होकर रदीफ जैसा लग रहा है। 

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