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गर्भाधान (लघुकथा) - रवि प्रभाकर

“पापा ! टीचर ने कहा है कि फीस जमा करवा दो, नहीं तो इस बार नाम अवश्य काट दिया जाएगा।"
“अजी सुनते हो ! बनिया आज फिर पैसे मांगने आया था।”
“अरे बेटा ! कई दिन हो गए दवाई खत्म हुए, अब तो दर्द बहुत बढ़ता जा रहा है, आज तो दवाई ला दो।”

ये सभी आवाज़ें उसके मस्तिष्क पर हथोड़े की भाँति चोट कर रही थीँ।
मगर उसके दिल में एक नई कविता का खाका जन्म ले रहा था।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 10, 2013 at 3:58pm

आहा ... और कोई टिप्पणी नहीं 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 10, 2013 at 12:31pm

आदरणीय रवि जी ..आपकी इस सार्थक लघु कथा पर आपको हार्दिक बधाई ..लघु कथा दर्द की अभिव्यक्ति है कविता दर्द के बाँध जब बंधे न रह सके तब उसके फूटने पर निकलती है ..आपके इस चिंतन से निसंदेह नयी और कई कविताओं का श्रजन संभव है ..सादर 

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on December 10, 2013 at 12:27pm
बधाईया
Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on December 10, 2013 at 12:26pm
क्या बात है।
Comment by Meena Pathak on December 10, 2013 at 11:58am

बहुत सुन्दर और सार्थक लघुकथा | बधाई स्वीकारें 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 10, 2013 at 11:28am

रवि जी

बधाई हो i यह लघ कथा इतनी संकेतात्मक  है कि कुछ लोगो यह  अपूर्ण सी लग सकती है i  

किन्तु ऐसा है नहीं i 

नयी कविता का ढांचा पाठक अपनी अपनी तरह तलाश करेंगे i \

मेरी बधाइयाँ  i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2013 at 7:53am

आदरणीय रवि भाई , भाव जो भर के छलकने लगे वो ही तो कविता का रूप लेती है !!!!! सार्थक लघुकथा के लिये आपको बधाई !!!!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 9, 2013 at 10:20pm

आदरणीय रवि जी, आजकल यही सब हो रहा है, परेशानियाँ और खुशियाँ सभी रचनाओं का रूप लेने को बैचैन है, बाकि आदरणीय बागी जी ने कह दिया है ,,लघुकथा पर  बधाई स्वीकारें


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 9, 2013 at 9:03pm

आदरणीय रवि भाई क्या कहने, यह लघुकथा कुछ कुछ अपनी सी लग रही है, कई बार पत्नी बाज़ार से कुछ लाने को कहती हैं और ला कुछ और देता हूँ या मांगी गई ५ सामानों में से ३ ही लाता हूँ , कारण यही है दिमाग में किसी लघुकथा का प्लाट घूम रहा होता है, बहुत बहुत बधाई, एक आम सी बात को ख़ास बनाने के लिए |

Comment by वेदिका on December 9, 2013 at 8:24pm

शीर्षक सुन के कुछ और ही विवेचना सोची थी, सोचा था शायद कवि का परिवार एकोनोमी से त्रस्त है| किन्तु कहानी का प्रारूप कुछ और ही पाया| वास्तव मे कवि व्यस्त ही रहता है हर कोने मे अपनी कविता को ढूँढने मे| और शीर्षक पर कहूँगी "टिकाऊ" है|

बधाई !!   

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