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ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है

तुम जैसी नहीं

इसने तो फिर भी छुआ है.. .
भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है..  
बार-बार जिन्दा रखा है
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को

कितने निर्लिप्त कितने विलग कितने न-जाने-से..तुम !

किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?
मैं मुट्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में...  

कठोर !


********************

-सौरभ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on April 24, 2013 at 2:15pm

आदरणीय सौरभजी, आपने जिस अंदाज़ में अपनी कविता को स्पष्ट किया है वह मूल कविता की तरह ही वंदनीय है. सादर आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 24, 2013 at 12:12am

आदरणीय भ्रमएरजी, आपका सादर धन्यवाद कि आपने प्रस्तुति को समय दिया.

सादर

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 24, 2013 at 12:03am

किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को 
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?

आदरणीय सौरभ भ्राता  श्री ...गहन भाव ...अंतर्वेदना -व्यथा को प्रकृति के माध्यम से बखूबी  व्यक्त किया गया ....टीस एक उलाहना   दर्पण पर उकेर दी गयी ...

भ्रमर ५ 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 23, 2013 at 11:49pm

रचना वैचारिक हो या तुकांत या फिर छांदसिक, रचनाकार से बाहर निकल जायँ तो उसके व्यक्तित्व से प्रच्छन्न हो जाती हैं. फिर वो पाठक का व्यक्तिगत स्वर अधिक होती हैं. यह तथ्य वैचारिक रचनाओं के लिए कहीं अधिक सही है. प्रस्तुत हुई भाव-दशा के शब्द चाहे जो हों, उस हेतु रचना में इंगित चाहे जैसे भी साधे जायँ, ऐसी रचनाओं का संप्रेषण हर पाठक अपने हिसाब से ग्रहण करता है. क्योंकि दुःख का भाव सबके लिए एक ही होता है. भले ही स्वीकार्यता का स्तर अलग-अलग हो.

यदि प्रस्तुत रचना पर आऊँ तो यह रचना स्त्री-पुरुष के सनातन संबन्ध के एक अति विशिष्ट किन्तु तिर्यक पहलू से उपजी दशा का संप्रेषण है. यहाँ सूरज ’निरंतर पुरुष’ और धरती ’निरंतर स्त्री’ है. यह रचना विच्छिन्न धरती   --निरंतर स्त्री--  का एकालाप है जिसका सूरज  --निरंतर पुरुष--   की बाह्यमुखी कारगुजारियों के प्रति भयंकर क्रोध है. उससे धरती का मोहभंग हुआ है या नहीं, किन्तु, यह अवश्य है कि अपनी नितांत एकाकी और अन्यमन्स्क दशा के लिए यह ’मानिनी’ उसे ’कठोर’ या  ’रे कठोर...’ या ’रे निर्लिप्त’ आदि कह कर लताड़ती है. कि, भला हो सांझ के सखीत्व का जिसका होना बेधती हुई एकाकी नीरसता से निपटने का असहज या क्षणिक ही सही एक कारण तो है  !! .. .

आदरणीया राजेशकुमारीजी का मैं सादर आभारी हूँ कि आपने मेरी रचना की भाव-दशा को शब्द दिये. इसी तरह, आदरणीया प्राचीजी तथा भाई केवल प्रसाद ने रचना के भावों को शाब्दिक कर मुझे जो मान दिया है उसके लिए मैं आप का हृदय से आभारी हूँ.

आदरणीय अशोकभाईजी, आदरणीया सावित्री राठौड़जी, अनन्य भाई अभिनव अरुण जी, आदरणीया वन्दनाजी, आदरणीया गीतिकाजी, आदरणीय सतीश मापतपुरीजी, भाई अरुणअनन्तजी, आदरणीय प्रदीपजी, भाई अजयखरेजी, भाई बृजेशनीरजजी, भाई नादिर साहब, आदरणीय़ा कुन्तीजी, आदरणीया शर्दिन्दुजी, भाई मनोज शुक्लाजी तथा भाई रामशिरोमणि के प्रति हार्दिक आभार अभिव्यक्त करता हूँ. आपलोगों ने प्रस्तुति पर समय दिया यह मेरे लिए उत्साह का कारण है.

इस रचना के संबन्ध में सुधीजनों मैं एक निवेदन कर रहा हूँ कि मैंने शिल्प में एक प्रयोग करने का प्रयास किया है, कि इस कविता का शीर्षक कविता का ही भाग है. शीर्षक कविता का परिचायक न हो कर एक बिम्ब है जिसे कविता इंगित कर अपने भाव निवेदित करती है.  शायद ऐसे प्रयोग और हुए हों, किन्तु, मुझे इसकी जानकारी नहीं है.

सादर

Comment by ram shiromani pathak on April 23, 2013 at 9:24pm

किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को 
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ? 
मैं मुट्ठी होती रही लगातार 
गुमती हुई खुद में...  

आदरणीय सौरभ सर ,बहुत ही भाव पूर्ण रचना /प्रणाम सहित हार्दिक बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 23, 2013 at 8:34pm

आदरणीय सौरभ जी, अंतर्भावों का अथाह सागर और लहरें पाठकों को आद्र करतीं, देर तक डुबोए रखतीं अपनी हर शब्द बूँद में... हर शब्द संवेदनाओं के तारों को चोट कर झकझोरता सा ..

मैं मुट्ठी होती रही लगातार 
गुमती हुई खुद में...  

कठोर !....................................गज़ब! शब्दों की कारीगरी, गहनतम भावों को चरम तक संप्रेषित करती 

हार्दिक बधाई स्वीकारें इस सघनित सम्प्रेषण पर..सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 23, 2013 at 7:08pm

आदरणीय सौरभ जी नारी हो या धरा हो उनके अंतर्मन की व्यथा एक सी ही है प्रकृति का बिम्ब लेकर कितनी ख़ूबसूरती से उस व्यथा को शब्द दिए हैं ये साँझ सपाट सही 
ज्यादा अपनी है

तुम जैसी नहीं 

इसने तो फिर भी छुआ है.. . 
भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है..  
बार-बार जिन्दा रखा है 
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को ------एक सांझ ही तो है तपिश  की  पीर को अपने मखमली आँचल से शीतलता प्रदान करती है ,तुमने दग्धता के सिवाय दिया क्या है कब ह्रदय में झांककर उसकी जलन को देखा जो धीरे धीरे स्याह हो गया और एक पत्थर बन गया-----मैं मुट्ठी होती रही लगातार 

गुमती हुई खुद में...  

कठोर !

निःशब्द कर दिया है इस रचना ने, हर पाठक अपने द्रष्टिकोण से गूढ़ भावों को समझने का प्रयास करेगा मैंने जो समझा आप से साझा किया बहुत- बहुत बधाई आपको इस उत्कृष्ट प्रस्तुति हेतु 

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 23, 2013 at 6:49pm

आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, एक उलाहने में छिपे मर्म को आपने जिस तरह प्रस्तुत किया है. अभिव्यक्ति की एक शानदार मिसाल है. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना। सादर कोटिशः बधाई स्वीकारें।

Comment by बृजेश नीरज on April 23, 2013 at 5:52pm

अत्यन्त मर्मस्पर्शी रचना। भीतर तक भरती चली गयी भावों से रीते मन को। मेरी बधाई स्वीकारें गुरूदेव।
सादर!

Comment by Savitri Rathore on April 23, 2013 at 12:40pm

अंतर के भावों को मुखरित करती ...........स्वाभिमान को दर्शाती .............हृदय की उद्विग्नता को स्वर देती मर्मस्पर्शी रचना .........हार्दिक अभिनन्दन !

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