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ग़ज़ल( इस्लाह के लिए )मनोज अहसास

221 2121 1221 212

बैठे हैं इल्तिज़ाओ की चादर लिए हुए
उनकी गली में इश्क़ का दफ्तर लिए हुए

हैरत नज़र में पीठ में खंज़र लिए हुए
चलते हैं हम तो दर्द का लश्कर लिए हुए

कुछ ऐसे बदनसीब भी ढोता है ये जहां
जीते हैं एक जान कई सर लिए हुए

तन्हाइयों का शौक लेके आ गया कहाँ
जिन्दा हैं खुद को खोने का ही डर लिए हुए

दुनिया की बात सोचता तो कैसे सोचता
कांधो पे तेरे गम से भरा सर लिए हुए

तब जाके पूरी होगी मेरे ज़ख्मो की तलब
वो भी खड़े हो भीड़ में पत्थर लिए हुए

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by मनोज अहसास on September 20, 2016 at 1:39pm
आप सभी का हार्दिक आभार
सादर
Comment by ram shiromani pathak on September 14, 2016 at 9:27pm
भाई आपकी ग़ज़ल मुझे बहुत अच्छी लगी।हार्दिक बधाई
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 14, 2016 at 7:59pm
आदरणीय श्री मनोज कुमार एहसास जी बहुत ही सुन्दर गजल हुई है । सस्नेह बधाई स्वीकार करें । सादर!
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on September 14, 2016 at 10:30am
खूबसूरत अहसासों से सजी उम्दा ग़ज़ल दिली दाद कुबूल करे आदरणीय।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 13, 2016 at 2:12pm

क्या बात है आदरणीय बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल करें 

Comment by Sushil Sarna on September 13, 2016 at 12:30pm

दुनिया की बात सोचता तो कैसे सोचता
कांधो पे तेरे गम से भरा सर लिए हुए

तब जाके पूरी होगी मेरे ज़ख्मो की तलब
वो भी खड़े हो भीड़ में पत्थर लिए हुए
बहुत खूब आदरणीय मनोज जी। ... बहुत ही खूबसूरत अशआर हुए हैं। .... इस दिलकश प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by Samar kabeer on September 13, 2016 at 11:08am
जनाब मनोज कुमार'अहसास'साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है, दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
पांचवें शैर के सानी मिसरे में 'तेरे' को "तेरा" कर लें ।

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