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===========ग़ज़ल=============

ग़मों के दौर में जब मुस्कुराने का हुनर आया
हमें बंजर जमीं पे गुल खिलाने का हुनर आया

भरोसा तोड़ कर तुमने दिया हर बार धोखा यूँ
मुसलसल चोट खाकर आजमाने का हुनर आया

खुदा होता निहां है पत्थरों में मान बैठा हूँ
मुझे यूँ संग से भी दिल लगाने का हुनर आया

अदा से क़त्ल करती है तबस्सुम से ग़ज़ब ढाती
उसे जबसे निगाहों को झुकाने का हुनर आया

रकीबों की बसा तस्वीर दिल के आशियाने में
चरागों को बुझा के दिल जलाने का हुनर आया

दिए अल्फाज दिल के दर्द को आवाज आहों को
मुझे भी तब ग़ज़ल कहने सुनाने का हुनर आया

हसीं यादें रखीं ताज़ा बुरे दिन भूल जाता हूँ
उसे यूँ याद करके भूल जाने का हुनर आया

दिखा कर झूठ उसके सामने खुद हो गया झूठा
तभी से "दीप" आईना दिखाने का हुनर आया

संदीप पटेल "दीप"

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 21, 2012 at 3:39pm

आदरणीय उमाशंकर सर जी सादर प्रणाम
आपने ग़ज़ल को सराहा उत्साह दो गुना हो गया
ये स्नेह यूँ ही अनुज पर बनाये रखिये
आपका बहुत बहुत शुक्रिया सहित सादर आभार

Comment by UMASHANKER MISHRA on September 21, 2012 at 12:46pm

प्रिय संदीप जी हर एक लाईन पर 

दाद ..बहुत खूब है 

हार्दिक बधाई स्वीकारें 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 21, 2012 at 10:55am

आदरणीय सुजान जी सादर नमन
आपको ग़ज़ल पसंद आई और आपने अपना वक़्त दिया
इसके लिए मैं आभार व्यक्त करता हूँ
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 21, 2012 at 10:54am

परम आदरणीय सौरभ सर जी सादर प्रणाम
कुछ व्यस्तताओं के चलते मैं अपेक्षा से कम समय दे पा रहा हूँ इसके लिए बेहद दुःख है
आपकी मिली ये प्रतिक्रिया तारीफ़ किसी आशीर्वाद से कम नहीं है
ये स्नेह यूँ ही नादाँ पर बनाये रखिये
आपका बहुत बहुत आभार

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 21, 2012 at 10:52am

आदरणीय डाबरे जी सादर प्रणाम
आपको मेरी ये ग़ज़ल पसंद आई और आपसे इस कहन को दाद मिली
इस हौसलाफजाई के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये

Comment by सूबे सिंह सुजान on September 20, 2012 at 10:19pm

क्या बात है......हसीं यादें रखीं ताज़ा बुरे दिन भूल जाता हूँ
उसे यूँ याद करके भूल जाने का हुनर आया

Comment by सूबे सिंह सुजान on September 20, 2012 at 10:13pm

वाह खूबसूरत है। बधाई


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 20, 2012 at 4:24pm

भाई संदीपजी, ग़ज़ब !

कुछ आजकी, कुछ परंपराओं की कहन को क्या ही जबर्दस्त अंदाज़ में आपने पेश किया है कि मन वाह-वाह कर उठा है. मतले से लेकर आखिर शेर तक एक रौ में पढ़ता गया. दिली दाद कुबूल कीजिये. भाई.. .

Comment by प्रमेन्द्र डाबरे on September 20, 2012 at 4:24pm

संदीप जी आप की  इस ग़ज़ल पर हमारे सारे ख्याल कुर्बान...........प्रमेन्द्र डाबरे

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