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All Blog Posts Tagged 'अतुकांत' (257)

तुझ बिन..! ( अतुकांत )

कैसी शुष्कता है?

जो धूप में

बदन झुलसा रही..

भीतर इतनी आग

विरह की जो

केवल धुआँ

और धुआँ देती है

राख तक नसीब नहीं

जिसे रख दूँ संजो कर

तेरी हथेली पर

जब मिलन की बेला हो

और कहूँ कि....

यह पाया मैंने

तुझ बिन...!

     जितेन्द्र ' गीत '

( मौलिक व् अप्रकाशित )

 

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on April 21, 2014 at 11:00am — 58 Comments

आखिर, कितने दिनों के वास्ते ?

खिलना नहीं है बाग में

मिलना है जिसको खाक में

ध्यान में उसका धरूँ

कितने दिनों के वास्ते ?

विश्वास अपनों का धरूँ

उपहास अपना क्यों करूँ ?

इतिहास अपना ही लिखूँ

कितने दिनों के वास्ते ?

अवसाद सपनों पर करूँ

फरियाद अपनों से करूँ

नित याद में खोई रहूँ

कितने दिनों के वास्ते ?

अभिमान मन की भूल है 

अरमान मन की चूक है

इस चूक को वरदान समझूँ

कितने दिनों के वास्ते…

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Added by kalpna mishra bajpai on April 8, 2014 at 11:00pm — 22 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ताकि, बचा सकूँ हताशा से ( अतुकांत ) गिरिराज़ भंडारी

ताकि, बचा सकूँ हताशा से

*********************

इसलिये नही कि ,

सतत चलती सीखने की प्रक्रिया से भागना चाहता हूँ

इसलिये भी नही कि ,

मेरे लिए सब कुछ जाना-जाना , सीखा-सीखा है ,…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on March 27, 2014 at 4:30pm — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
'अल्प विराम-पूर्ण विराम' अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

अल्प विराम – पूर्ण विराम  

********************

वो मै होऊँ या आप

छोटा मोटा विद्यार्थी

सबके अंदर जीता है ,

आवश्यक रूप से

और वो जानता भी है ,

जीते रहने की…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on March 26, 2014 at 7:00am — 12 Comments

'तोड़ कर तट बंध सभी' ( अन्नपूर्णा बाजपेई )

उत्तुंग शृंखलाओ को

चीर कर

रफ्ता रफ्ता

उतरती चली आती है

सदा ही अवनत

मचलती लहराती वो

करती धरा का आलिंगन

सहर्ष ..... वलयित हो

मुसकाती

बढ़ती जाती निरंतर

सागर की बाँहों मे

समा जाने को विकल

अद्भुत निरखता सौम्य रूप

कुछ उच्छृंखल

राह के अवरोध समेट

तरण तारिणी

सागर से मिलन की

मधुर बेला मे

पूर्ण समर्पण लखता

अहा ! क्या ही अद्भुत

विहंगम दृश्य.......

धारा का जलध…

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Added by annapurna bajpai on March 23, 2014 at 12:00am — 15 Comments

क्या तुम्हे भी...? (अतुकांत)

तुम बिन

तन्हा-तन्हा सी साँसें

पल-पल गुजरता रहा

वरष के जैसा

बेचैनी की धीमी-धीमी आग में

बसंत बीत ही गया

न जाने कैसे कटेगा..?

रंगों का महीना

तुम बिन तो है

बे-रंग सा फाल्गुन

दिन तो काटने ही हैं

इस तरह क्यों न थका लूँ तन को

कि शाम तक

चूर हो जाय !

ये तन्हा रातें

बिन करवट ही

बीत जायें ।

इस तन्हाई को मेरे भाग्य ने ही सौंपा है मुझे

क्या तुम्हें…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on March 5, 2014 at 8:19am — 28 Comments

अतुकांत

बचपन का गाँव

नीम की छांव

छोटा सा कोना

कच्चा सा आँगन

बहुत याद आता है ।

गाँव के मेले 

ढेरों झमेले

दोनें में चाट

बर्फ को गोला

बहुत याद आता है ।

बचपन की सखियाँ

डिब्बे में गुड़ियाँ

छोटा सा गुड्डा

उन से बतयाना

बहुत याद आता है ।

सावन के झूले

हाथों में मेंहदी

काँच की चूड़ी

निवौली की पायल

बहुत याद आते है…

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Added by kalpna mishra bajpai on February 25, 2014 at 8:51pm — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
लोकतंत्र का मुखौटा पहने (अतुकांत)

लोग कहते हैं

ज़माना बदल गया

मै कहता हूँ-

फ़क़त चेहरे बदले हैं,

व्यक्ति परक समाज तब भी था

अब भी है,

रियासतों,

शाही आनो-शान के बीच,

इंसानों के लहू से लिखी गई,

इतिहास की इबारत,

जो आज भी सुर्ख़ है

 

नाम बदले

मगर हालात न बदले

हुक्मरान बदले

मगर

जनता पहले भी ग़ुलाम थी

अब भी ग़ुलाम है

अंग्रेज़ों के पहले भी

अंग्रेज़ों के बाद भी

बेबसी ने ग़ुलाम…

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Added by शिज्जु "शकूर" on January 16, 2014 at 8:30pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बाप के जूते - अतुकांत (गिरिराज भंडारी)

बाप के जूते

***********

जब से

बाप के जूते

बच्चों के पैरों  में

आने लगे हैं ,

वो सही ग़लत

बाप को ही

समझाने लगे हैं  ।…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 6, 2014 at 8:00am — 42 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
वहीं हूँ जहाँ से चला था

मेरे खोये हुये लम्हात के ग़म को,

हकीकत के सीने में दफ़्न,

कुछ इच्छाओं की

उन धुँधली यादों को,

मेरे सपनों की लाशों को,

अब तक ढो रहा हूँ मैं…

 

कई दफे

ज़िन्दगी करीब से गुज़री,

मगर,

मैं ही जी न पाया..

आज मुझे लगता है

मैंने बहुत कुछ खो दिया,

पहले जो खोया है..

उसे याद कर,

और फिर,

उन्हीं यादों में खोकर,

 

एक लम्बा सफर तय किया,

मगर,

आज मुझे लगा

कि मैं…

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Added by शिज्जु "शकूर" on January 3, 2014 at 11:07am — 38 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आकर्षण के नियम (अतुकांत) -गिरिराज भंडारी

आकर्षण – विकर्षण 

चुम्बक मे ही नहीं होता  

भाव भी खींचते हैं , दूर कर देते हैं

भावों को ।

बस , नियम उलटा है

चुम्बक से ।

एक ही भावों होता है खिचाव …

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Added by गिरिराज भंडारी on December 30, 2013 at 7:30pm — 22 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नये युग की शुरुआत लिखें

सूखे पत्तों के ढेर में

उम्मीद का

एक अंकुर फूटा

 

सूखे पत्ते मानो,

लाशें हैं

लाश हारे हुये लोगों की

लाश,

पराधीनता को किस्मत समझ

डर-डर के जीने वालों की

 

वो अंकुर है

भाग्योदय का

कीचड़ में उतर

परजीवियों को

साफ कर

समाज से

बीमारी हटाने वालों का

जो एक ज़र्रा था कल तक

आज

ज़माना उसकी चमक देख रहा है

 

अपनी नन्हीं आँखें खोल

मानो, कह रहा…

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Added by शिज्जु "शकूर" on December 30, 2013 at 10:52am — 32 Comments

प्रेम (अतुकांत)

(1)

प्रिये !

अपने मन की व्यथा को

मैं आज किसे सुनाऊँ

इस संसार में

तुम्हारे अलावा इस मन की व्यथा को

दूसरा कौन समझ सकता है

अपमान गरल को

कंठ से लगाकर तुम मीरा तो बन गयी

पर मैं चाहकर भी अब तक

नहीं बन पाया हूँ श्याम

यही मेरे मन की व्यथा है प्रिये !

जिसे तुम्हारे अलावा

और कोई नहीं समझ सकता

इस संसार में

(2)

प्रिये !

तुम्हारा मौन

बहुत कुछ कह जाता है

और बहुत बतियाती है

तुम्हारी आँखे

तुम्हारी मधुर… Continue

Added by Satyanarayan Singh on December 27, 2013 at 5:00pm — 17 Comments

ज्वार भाटा (अन्नपूर्णा बाजपेई)

वो हिरनी सी चंचल आंखे

कभी मुसकुराती हुई 

खामोश है अब ...... 

एक ज्वार भाटा आकर  

बहा ले गया है सब ...

  वो रिक्त आंखे

अब नहीं देखती

कोई सपना मधुर

क्योंकि उनसे छीना है

किसी ने हक़

स्वप्न देखने का । 

वे  अब नहीं ताकती

किसी की राह

क्योंकि वे खामोश है

शायद पत्थर हो गई है........ 

किसी ने छीना है 

उनसे जीने की खुशी

उनकी मुस्कुराहट

उनकी चंचलता  

किसी व्याघ्र…

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Added by annapurna bajpai on December 25, 2013 at 6:30pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
"दाग" अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

“दाग“ 

********

मूर्खता है ,

होली में रंगे कपड़ों से

दाग छुड़ाने की कोशिश ।

कोई कहता भी नहीं उसे

दाग दार ।

वो अलग हैं , दागियों…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 23, 2013 at 7:30pm — 33 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
रात (अतुकांत)

दिन भर के सफर का

थका हुआ सूरज, मानो..

ज़मीं की सेज़ पर,

लहरों के झूले में,

चाँदनी की चादर ओढ़े

सबकुछ भूल के,

सोने जा रहा हो,

लहराते हुये लहरो में,

मानो,

कह रहा है

मेरे दोस्तो

विदा, फिर मिलेंगे सुबह...

मैं चला

 

होती है रात विश्राम को,

थकान मिटाने को,

चलें सफर में

रात के साथ...

पिछला ग़म भुलाने को

चलो

सुबह एक नई शुरूआत करेंगे

 

 -मौलिक व…

Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on December 18, 2013 at 10:30am — 17 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अतुकांत -- " कुरेदिये नही " ( गिरिराज भंडारी )

समय के ,

सूर्य के ताप से

सूखता हुआ मल,

स्वयम ही,

स्वाभाविक रूप से ,

हो जायेगा

दुर्गन्ध हीन |

और फिर

वातावरण स्वयम…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on December 18, 2013 at 6:30am — 18 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता - नि:शब्द (गणेश जी बागी)

शब्द कोष से संकलित

क्लिष्ट शब्दों का समुच्चय

गद्यनुमा खण्डित पक्तियों में

शब्द संयोजन

कथ्य और प्रयोजन से कोसों दूर

लक्ष्यहीन तीरों के मानिंद

बिम्ब और प्रतीक

कही तो जा धसेंगे

बस

वही होगा लक्ष्य

फिर.......

पाठक का द्वन्द्ध

बार-बार पढ़ना

पग-पग पर अटकना

समझने का प्रयत्न

गुणा भाग, जोड़ घटाव

सुडोकू सुलझाने का प्रयास

और अंततः

एक प्रतिक्रिया

नि:शब्द हूँ ।

***

(मौलिक व…

Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 5, 2013 at 11:30am — 51 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
!!!! काले काले वर्षा वाले !!!! अतुकांत !!!!

सावन के बादल

काले काले ,

वर्षा वाले !

क्षुधित मानव की प्यास

बुझाने वाले…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on December 4, 2013 at 7:00am — 25 Comments

सुनो आखेटक !!

आखेटक !!

क्या तुम्हें आभास है ?

कि तुम जिजीविषा मे

किसी का आखेट कर

जीवन यापन की मृगया मे

भटकते हुये मदहोश हो !

आखेटक !

क्या तुम्हें आभास है ?

आखेटक को संजीवनी नहीं मिलती

मन की तृष्णा की खातिर

अनन्य मार्गदर्शी का भी

विसस्मरण कर दिया है

सृजनमाला को विस्फारित नेत्रों से

देखते हुए मदमस्त हो !

आखेटक !!

क्या भूल गए हो ?

आखेट करने को आया तीर

एक दिन तुम्हें भी बेध जाएगा

तब…

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Added by annapurna bajpai on November 20, 2013 at 12:00pm — 8 Comments

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