For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

Vijay nikore's Blog (210)

स्वप्न-भाव

             स्वप्न-भाव

मुझको सपने याद नहीं रहते

दर्द की कोख से जन्मे एक सपने के सिवा

आत्मीय पहचान का गहरापन ओढ़े

बार-बार लौट आता है वह

पलकों के पीछे के अंधेरों से धीरे-धीरे

जीवन के अंगारी तथ्यों की…

Continue

Added by vijay nikore on May 24, 2015 at 8:30pm — 16 Comments

अकेला-एकान्त

अकेला-एकान्त

असंग आत्म-विश्वास का

गम्भीर भान

अकेला-एकान्त

कभी करी हुई विलीन हुई बातें

अनबूझा विशाद

संसारी गतिविधियों से 

परिवर्तित प्रवृत्तियों से 

बदले व्यवहार से शब्दों की चोट से

कुछ हुआ अचानक

हमारे बीच का बहता वह सुगम प्रवाह

घनिष्ठ अपनत्व

अमृत-सा सुख

सूख गया

खुशियों का हिस्सा जो लगता था मेरा था

अब मेरा न था

असंवेदनाओं के धरातल पर…

Continue

Added by vijay nikore on May 13, 2015 at 12:30am — 18 Comments

सैलाब

सैलाब

मानव-प्रसंगों के गहरे कठिन फ़लसफ़े

अब न कोई सवाल

न जवाब

कहीं कुछ नहीं

"कुछ नहीं" की अजीब

यह मौन मनोदशा

अपार सर दर्द

ठोस, पत्थर के टुकड़े-सा

हृदय-सम्बन्ध सतही न होंगे, सत्य ही होंगे

वरना वीरान अन्तस्तल-गुहा में

दिन-प्रतिदिन पल-पल पल छिन

गहन-गम्भीर घावों से न रिसते रहते

दलदली ज़िन्दगी के अकुलाते

अर्थ अनर्थ

कुछ हुआ कि झपकते ही पलक

विश्व-दृश्य…

Continue

Added by vijay nikore on April 30, 2015 at 11:10am — 14 Comments

अंतिम शब्द

अंतिम शब्द

द्वार खुला था

तुम दहलीज़ पर अहम्‌ के जूते उतार

सुस्मित शरद चाँदनी-सी कभी

कभी भोर की प्रथम किरण बनी

बाँहें फैलाए घर के भीतर चली आई

तुमने जिसे मंदिर बनाया

वह आँसू-डूबा उल्लास-भरा

मेरा मन था।

मन पावन था पावन रहा

कब कहा मैंने भगवान हूँ मैं

तुमने मुझको भगवान बनाया

और अब असीम बेरहमी से सहसा

जूतों समेत मेरे सीने पर चल कर

तुम्हारा प्रहार पर प्रहार ... उफ़ !

भीतर…

Continue

Added by vijay nikore on March 25, 2015 at 12:30pm — 30 Comments

अनबूझा मौसम

अनबूझा मौसम

आसमानी बिजली

मूसलाधार बारिश

फिर सूरज की चमकती किरणें

डाल पर फूल का नव रूप धर आना

मौसम के बाद एक और मौसम ...

यह सब सिलसिला है न ?

पर किसी एक के चले जाने के बाद

यहाँ कहीं नए मौसम नहीं आए

एक मौसम लटक रहा है

उदासी का

डाल पर रुकी, लटक रही टूटी टहनी-सा

भय और शंका और आतंक का मौसम

भिगोए रहता है पलकों को

आधी रात

क्या नाम दूँ

टूटे विश्वास का…

Continue

Added by vijay nikore on December 21, 2014 at 4:30pm — 14 Comments

परिमूढ़ प्रस्ताव

परिमूढ़ प्रस्ताव

अखबारों में विलुप्त तहों में दबी पड़ी

पुरानी अप्रभावी खबरों-सी बासी हुई

ज़िन्दगी

पन्ने नहीं पलटती

हाशियों के बीच

आशंकित, आतंकित, विरक्त

साँसें

जीने से कतराती

सो नहीं पातीं

हर दूसरी साँस में जाने कितने

निष्प्राण निर्विवेक प्रस्तावों को तोलते

तोड़ते-मोड़ते

मुरझाए फूल-सा मुँह लटकाए

ज़िन्दगी...

निरर्थक बेवक्त

उथल-पुथल में लटक…

Continue

Added by vijay nikore on November 24, 2014 at 8:30am — 22 Comments

रहस्य-भावानुभूति

रहस्य-भावानुभूति

पा लेने की प्यास

खो देने की तड़प

ज्वालामुखी अग्नि हैं दोनों

बिछोह के धुँए को आँखों में सहते

गहरापन ओढ़े

गुज़र जाते हैं एक के बाद एक

खुशिओं के त्योहार

खुशियों में शून्यताओं की पीड़ाएँ अपार

नहीं ठहरती है हाथों में

खुशी, मुठ्ठी में रेत-सी

पर मौसम कोई भी हो

अकुलाती रहती है पैरों के तलवों के नीचे

तपती रेत की अग्नि-सी…

Continue

Added by vijay nikore on November 10, 2014 at 3:30pm — 12 Comments

अधसूखे घाव

सिसकियों से सींची

टूटी ज़िन्दगी बार-बार जीने के बाद

पंख कटे रक्ताक्त पंछी-सी मैं…

Continue

Added by vijay nikore on October 26, 2014 at 8:00pm — 10 Comments

पूर्वगाथा ....(विजय निकोर)

पूर्वगाथा

हादसा नया हो न हो

पुरानी चोट से जगह-जगह

दर्द नया

लहर दर्द की, अब दुखी

तब दुखी

कब रुकी

बहती चली गई

मेघ यादों के आँखों में घने

बरसे, बरसे अनमने

तालाब से नदी, सागर

रातों सियाह महासागर बने

कोई नि:सीम अखण्ड विश्वास

तारिकाएँ नभ में कितनी टूटीं

टूटी नहीं किसी के आने की आस

स्नेह की किरणों की उष्मा में बादल

बने फिर घने, फिर बरसे

भीतर सागर…

Continue

Added by vijay nikore on October 8, 2014 at 8:00pm — 14 Comments

जाओ पथिक तुम जाओ ... (विजय निकोर)

जाओ पथिक तुम जाओ

(किसी महिला के घर छोड़ जाने पर लिखी गई रचना)

पैरों तले जलती गरम रेत-से

अमानवीय अनुभवों के स्पर्श

परिवर्तन के बवन्डर की धूल में

मिट गईं बनी-अधबनी पगडंडियाँ

ज़िन्दगी की

परिणति-पीड़ा के आवेशों में

मिटती दर्दीली पुरानी पहचानें

छूटते घर को मुड़ कर देखती

बड़े-बड़े दर्द भरी, पर खाली

बेचैनी की आँखें

माँ के लिए  कांपती

अटकती एक और पागल पुकार

इस…

Continue

Added by vijay nikore on September 18, 2014 at 5:30pm — 16 Comments

आसमानी फ़ासले .... (विजय निकोर)

आसमानी फ़ासले

बच्चों-सा स्वप्निल स्वाभाविक संवाद

हमारी बातों में मिठास की आभाएँ

ताज़े फूलों की खुशबू-सी निखरती

सुखद अनुभवों की छवियाँ ...

हो चुकीं इतिहास

समय-असमय अब अप्रभाषित

शून्य-सा मुझको लघु-अल्प बनाती

अस्तित्व को अनस्तित्व करती

निज अहं को आदतन संवारती

आलोचनाशील असंवेदनशीलता तुम्हारी

अब बातें हमारी टूटी कटी-कटी ...

बीते दिनों की स्मर्तियाँ पसार

मानवीय…

Continue

Added by vijay nikore on September 7, 2014 at 2:00pm — 21 Comments

अमृता प्रीतम जी ... दर्द की दर्द से पहचान (विजय निकोर)

अमृता प्रीतम जी ... दर्द की दर्द से पहचान

स्मृतियों की धूल का बढ़ता बवन्डर ... पर उस बवन्डर में कुछ भी वीरान नहीं। कण-कण परस्पर जुड़ा-जुड़ा, कण-कण पहचाना-सा। प्रत्येक स्मृति से जुड़ी सुखद अनुभूति, बीते पलों को जीवित रखती उनको बहुत पास ले आती है, अमृता जी को बहुत पास ले आती है...कि जैसे बीते पल बारिश की बूंदों में घुले, भीगी ठँडी हवा में तैरते, लौट आते हैं, आँखों को नम कर जाते हैं...

आज ३१ अगस्त ... मेरी परम प्रिय अमृता जी का पुण्य जन्म-दिवस ... वह…

Continue

Added by vijay nikore on September 1, 2014 at 5:00pm — 10 Comments

थर्राहट ... (विजय निकोर)

थर्राहट

कुछ अजीब-सा एहसास ...

बेपहचाने कोई अनजाने

किसी के पास

इतना पास क्यूँ चला आता है

विश्वास के तथ्यों के तत्वों के पार

जीवन-स्थिति की मिट्टी के ढेर के

चट्टानी कण-कण को तोड़

निपुण मूर्तिकार-सा मिट्टी से मुग्ध

संभावनाओं की कल्पनाओं के परिदृश्य में

दे देता है परिपूर्णता का आभास ...

उस अंजित पल के तारुण्य में

सारा अंबर अपना-सा

स्नेहसिक्त ओंठ नींदों में…

Continue

Added by vijay nikore on July 28, 2014 at 1:30am — 15 Comments

सुपरिष्कृत आस्था .... (विजय निकोर)

सुपरिष्कृत आस्था

 

भर्रायी आवाज़

महीने हो गए जाड़े को गए

क्यूँ इतनी ठिठुरन है आज

आस्था में, सचेतन में मेरे

आंतरिक शोर के ताल के छोर से छोर तक

ठेलती रही है आस्था मुझको, मैं इसको

पर आज बुखार में…

Continue

Added by vijay nikore on July 13, 2014 at 8:00pm — 22 Comments

समय बीतता गया... (विजय निकोर)

समय बीतता गया...

समय की आँधी क्रान्तियात्रा-सी

धुन्धले पड़ते

प्रतीक्षा और मृत्यु के सीमान्त

लड़खड़ाता साहस, विश्वास

ऐसे में स्नेह को आँधी में

दोनों हाथों से लुटा कर

कुछ मिलता है क्या

आत्मपीड़न के सिवा ?

अकेलापन

कसैलापन रसता

बचा रह जाता है

बीतती मुस्कान ओंठों पर

खाली बोतलों के पास

टूटे हुए गिलास-सी पड़ी ...

            -------

-- विजय निकोर

(मौलिक…

Continue

Added by vijay nikore on July 2, 2014 at 8:30am — 24 Comments

ज़िन्दगी की ढिबरी ... (विजय निकोर)

ज़िन्दगी की ढिबरी

डूबती संध्याओं की उदास झुकी पलकों में

एक रिश्ते-विशेष के साँवलेपन की झलक

बरतन पर लगी नई कलाई की तरह

हर सुबह, हर शाम और रात पर चढ़ रही, मानो

गम्भीर उदास सियाह अन्तर्गुहाओं में व्याकुल

मूक अन्तरात्मा दुर्दांत मानव-प्रसंगों को तोल रही

रिश्ते के साँवलेपन में समाया वह दानवी दर्द

अतीत की आँखों से टपक-टपक कर अब

क्यूँ है मेरी रुँधी हुई आवाज़ में छलक…

Continue

Added by vijay nikore on June 23, 2014 at 7:00am — 24 Comments

काल-धारा ...(विजय निकोर)

काल-धारा

मेरा स्नेह तुम्हारी ज़िन्दगी के पन्ने पर देर तक

स्वयं-सिद्ध, अनुबद्ध

हलके-से हाशिये-सा रहा यह ज़ाहिर है

ज़ाहिर यह भी कि जब कभी

अपने ही अनुभवों के भावों के घावों को

विषमतायों से विवश तुम चाह कर भी

छिपा न सकी

हाशिये को मिटा न सकी

मिटाने के असफ़ल प्रयास में तुम

घुल-घुल कर, मिट-मिट कर

ऐंठन में हर-बार कुछ और

स्वयं ही टूटती-सी गई

 

टूटने और मिटने के इस क्रम…

Continue

Added by vijay nikore on May 27, 2014 at 6:57am — 33 Comments

छाँह में छिपना चाहता हूँ ..... (विजय निकोर)

 छाँह में छिपना चाहता हूँ ...

 

तुम कहते हो मैं भी

चाँद की चाँदनी को पी लूँ ?

कल  हर भूखे का

भोजन निश्चित है क्या ?

 

आशा-अनाशा की उलझी

परस्पर लड़ती हुई हवाएँ…

Continue

Added by vijay nikore on April 20, 2014 at 2:09pm — 20 Comments

स्व के पार ... (विजय निकोर)

स्व के पार ...

 

हाथ से हाथ छूटने की

तारीख़ तो सपनों को पता है

हाथ फिर कभी मिलेंगे ...

तारीख़ का पता नहीं

 

तुम्हारे चले जाने के बाद

मेरे दिन और रात

उदास, चुपचाप, कतरा-कतरा

बहते रहे हैं

 

मेरे वक्त के परिंदे की पथराई पलकें

इन उनींदी आँखों की सिलवटों-सी भारी

उम्र के सिमटते हुए दायरों के बीच

थके हुए इशारों से मुझसे

हर रोज़ कुछ कह जाती हैं

और मैं रोज़ कोई नया बहाना…

Continue

Added by vijay nikore on March 28, 2014 at 4:34am — 20 Comments

मैदानी हवाएँ .... (विजय निकोर)

मैदानी हवाएँ

 

 

समेट नहीं पाती हूँ चाह कर भी  कभी

अनमनी यादों की चँचल-सी धारा-गति

लौट-लौट आते हैं दर्द भरे धुँधले

अधबने अधजले सपने

छिपाए न छिपें अर्थहीन समर्थों से अश्रु मेरे

क्यूँ आते हो जगा जाते हो तुम आन्दोलन,

इस अथाह सागर में प्रिय रोज़ सवेरे-सवेरे ?

 

हो दिन का उजाला

भस्मीला कुहरा

या हो अनाम अरूप अन्धकार

तुम्हारी यादों का फैलाव पल-पल

स्वतन्त्र मैदानी अनदिखी…

Continue

Added by vijay nikore on March 2, 2014 at 1:00pm — 17 Comments

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रस्तुति पर आपसे मिली शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ..  सादर"
3 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ कर तरक्की जो सभा में बोलता है बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।। * देवता जिस को…See More
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
yesterday
Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Nov 5
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Nov 5

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service