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Mohammed Arif's Blog (84)

किसान /मुक्तक

(1) सूखा हुआ किसान को दाना बना दिया ,
फिर ख़ुदकुशी का एक बहाना बना दिया ,
अब कहते अन्नदाता उसे शर्म आती है ,
भूख और मुफ़लिसी का तराना बना दिया ।
(2) अरमानों को कफ़न में सजाता किसान है,
अब ख़ुद ही अपनी लाश उठाता किसान है,
गोली पुलिस की खाए कि फ़ाकों से वो मरे,
मय्यत का रोज़ जश्न मनाता किसान है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on July 2, 2017 at 11:00pm — 10 Comments

धीरे-धीरे नदियाँ रेत बन गईं / कविता

धीरे-धीरे

नदियाँ रेत बन गईं

हरे-भरे खेतों में

ऊँची-ऊँची

अट्टालिकाएँ तन गईं

घरों में अनबन की

दीवारें खड़ी हो गईं

जीते जी बूढ़ी माँ

भुखमरी की निशानी बन गईं

मौसम सनकी

पागल जैसे हो गए

बारिश अब दूर की कौड़ी हो गई

देश

किसान आत्म हत्या का

रोज़ उत्सव मना रहा है

सरकार की

झूठी सफलताओं में

करोड़ों बहाए जा रहे हैं

सरकारी

आँकड़ों में

ग़रीबी रोज़ घट रही है

सरकार की

उद्योगपतियों के साथ

अच्छी पट रही… Continue

Added by Mohammed Arif on June 25, 2017 at 9:30am — 10 Comments

पिता (पितृ दिवस विशेष)

पिता संबल है , सहारा है ,
पिता आहुति है , उजियारा है ।
पिता साहस है , आधार है ,
पिता ग़लतियों पर वार है ।
पिता बच्चों का संसार है ,
पिता कुसंग को ललकार है ।
पिता समाज पर उपकार है ,
पिता सच्चाई की पुकार है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on June 17, 2017 at 10:58pm — 4 Comments

मुक्तक

(1) कुछ लोग ये चमन जला रहे हैं,
मज़बूर का बदन जला रहे हैं,
थमा के हाथों में हथियार वो,
ख़ुशियों भरा वतन जला रहे हैं ।
(2)संस्कारों का अब पतन हो रहा,
व्याभिचार के घर हवन हो रहा,
अनशन, भूख हड़ताल से हारा,
जीते जी किसान दफ़न हो रहा ।
(3)परिंदों के लिये जहान कहाँ है,
मुहब्बत करना आसान कहाँ है,
सभी ग़मों के समंदर में डूबे,
चेहरों पे अब मुस्कान कहाँ है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on June 12, 2017 at 11:30am — No Comments

माँ

(1) इबादत ,भक्ति और संवाद है माँ,
कोमल,निश्छल और निर्विवाद है माँ,
दुखों की गठरी कांधों पे ढोहती,
ममता की वर्षा से आबाद है माँ ।
(2)रोशनी, दीपक कभी राहत है माँ,
घरेलू नुस्खा कभी हिक़मत है माँ,
लय,छंद,गति,पाठ कभी शब्द साग़र,
संबल-सहारा कभी चाहत है माँ ।
(3)शीतल छाया कभी सहूलत है माँ,
आँसू ,सिसकी कभी हिदायत है माँ,
पंचतंत्र, जातक कथाओं-सी सीख,
घरेलू झगड़ों की अदालत है माँ ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on June 7, 2017 at 12:05pm — 13 Comments

बेटियाँ (मुक्तक)

(1)क़ुदरत की इनायत हैं बेटियाँ
माँ-बाप की चाहत हैं बेटियाँ
सदा सपनों को करती साकार
हर घर की ज़रूरत हैं बेटियाँ ।
(2)राहें नई बना रही हैं बेटियाँ
सपनें नये सजा रही हैं बेटियाँ
कीर्तिमानों के शिखरों को छू रही
विमानों को उड़ा रही हैं बेटियाँ ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on June 1, 2017 at 9:06pm — 11 Comments

ग़ज़ल (बह्र--22/22/22/2)

सौदें होते हैं तन के
रिश्ते-नाते हैं धन के ।
याद बहुत आते हैं अब
मुझको दिन वो बचपन के ।
मीठी-मीठी यादें सब
ताने-बाने हैं मन के ।
कितने ही होते हैं दुख
माँ को लालन-पालन के ।
ग़ुर्बत के शिकवें हैं,ये
ख़ाली सारे बरतन के ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on May 27, 2017 at 10:40am — 7 Comments

ग़ज़ल बह्र-22/22/22/2

उसने बस धन देखा है,
कब ये जीवन देखा है ।
टेसू छाया बाग़ों में,
उसका यौवन देखा है ।
देखी उसकी सूरत तो,
फिर से दरपन देखा है ।
जब-जब बरसे बादल तो,
भीगा तन-मन देखा है ।
उसकी बजती पायल पर,
खिल उठता मन देखा है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on May 21, 2017 at 7:54am — 15 Comments

ग्रीष्म के दोहे

सूरज शोले छोड़ता ,पशु भी ढूँढे छाँव ।
दर खिड़की सब बंद है ,सन्नाटे में गाँव ।।

भीषण गरमी पड़ रही,पशु -मानव हैरान ।
भू जल भी घटने लगा, साँसत में है जान ।।

पारा बढ़ता जा रहा, सूख रहे तालाब ।
देखो गाँव महानगर , हालत हुई खराब ।।

पत्ते झुलसे पेड़ पर ,नीम बबूल उदास ।
पशु किसान सबको लगी, पानी की अब आस ।।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on May 11, 2017 at 8:30am — 14 Comments

ग़ज़ल: सूखे-सूखे जंगल अब

बह्र-22/22/22
सूखे-सूखे जंगल अब,
रूठे-रूठे बादल अब ।

.
वादे, नारे सब झूठे,
बदले-बदले हैं दल अब ।

.

देखो किसकी साज़िश है,
रिश्ते-नाते घायल अब ।

.

बोतल में ऊँचे दामों,
बिकता है गंगा जल अब ।

.

ग़रीब के घर भी यारों,
ख़ुशियों वाला हो पल अब ।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on May 7, 2017 at 9:00pm — 13 Comments

ग़ज़ल: उसको ये समझाना है

(बह्र--22/22/22/2)
उसको ये समझाना है ,
इक दिन सबको जाना है ।

.
हँस के रोकर कैसे भी ,
जीवन क़र्ज़ चुकाना है ।

.

देखो, भटका फिरता वो ,
वापस घर तो आना है ।

.

अच्छी सच्ची राहें हैं
सबको ये बतलाना है ।

.

उसके संगी-साथी को ,
मिलकर हाथ बढ़ाना है ।

.

आशा की किरणों वाला ,
फिर से दीप जलाना है ।

.
मौलिक एवं आप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on April 30, 2017 at 4:00pm — 13 Comments

मेरे भीतर की कविता

मेरे भीतर की कविता

अक्सर छटपटाती है

शब्दों के अंकुर

भावों की विनीत ज़मीन पर

अंकुरित होना चाहते हैं

ना जाने क्यों वे

अर्थ नहीं उपजा पाते हैं

मेरे भीतर की कविता फिर भी

जाकर संवाद करती है

सड़क किनारे बैठे

उस मोची पर जो

फटे जूते सी रहा है

बंगले की उस मेम साहिबा पर

जो अपना बचा फास्ट फुड

डस्टबिन में फेंककर

ज़ोर से गेट बंद करके

अंदर चली जाती है

लेकिन

अनुभूतियाँ ज़ोर मारती है

पछाड़े खाकर गिर जाती है

हृदय…

Continue

Added by Mohammed Arif on April 17, 2017 at 5:30pm — 12 Comments

ग्रीष्म के हाइकु

1. झुलसी काया
आतंकी-सा सूरज
बेचैन सब ।
2.सूनी सड़कें
पसरा है सन्नाटा
जारी खर्राटे ।
3.डाल से टूटे
बरगद के पत्ते
सुनाए राग ।
4. सूखने लगे
पोखर औ तालाब
छोटी रात ।
5.नन्ही चीड़िया
करके जलपान
फुर्र हो जाए ।
6.चैत्र महीना
रात-दिन तपाए
किधर जाएँ ।
7.लू के थपेड़े
साँय-साँय सन्नाटा
सुस्ती में तन ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on April 2, 2017 at 3:30pm — 15 Comments

हाइकु

1.प्यासा तालाब
पीपल उदास-सा
गाँव है चुप ।
2.हुक्का , खटिया
चौपाल है गायब
बीमार गाँव ।
3.दहेज प्रथा
परिवर्तित रूप
कैश का खेल ।
4.धरती छोड़
चाँद पर छलांग
पुकारे भूख ।
5.मिलन नहीं
प्यास है बरकरार
है इंतज़ार ।
6.ऐश्वर्य प्रेमी
संत उपदेशक
माया का खेल ।
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on March 18, 2017 at 7:30pm — 4 Comments

सार छंद (मात्रिक विधान-16-12/16-12 )

छन्न पकैया छन्न पकैया ,बोले मीठी बोली ।

गाँवों , बाग़ो़ं गलियों छाई , टेसू की रंगोली ।।

.

छन्न पकैया छन्न पकैया , देखो, खिलता पलाश ।

पागल मतवाले भँवरों को , कलियों की है तलाश ।।

.

छन्न पकैया छन्न पकैया , टेसू मन को भाया ।

मतवाला, दीवाना, पागल, भँवरा भी इठलाया ।।

.

छन्न पकैया छन्न पकैया , उड़ता अबीर-गुलाल ।

यारों, संगी-साथी मिलकर ,करते मस्ती धमाल ।।

.

छन्न पकैया छन्न पकैया , पलाश के हैं झूमर ।

मौसम, यौवन, कलियाँ…

Continue

Added by Mohammed Arif on March 14, 2017 at 7:00pm — 7 Comments

ग़ज़ल (बह्र-22/22/22/2)

पानी वाला बादल हो ,
नदियों में फिर हलचल हो ।
गाँवों की पनघट पे अब ,
फिर से बजती पायल हो ।
झूठे वादों से ऊपर ,
कोई तो ऐसा दल हो ।
जिसमें राहत हो सबको ,
आने वाला वो कल हो ।
सारे दुख सह जाऊँ मैं ,
सर पे माँ का आँचल हो ।
साफ़ हवा पानी पायें ,
पेड़ों वाला जंगल हो ।
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on March 12, 2017 at 1:30pm — 3 Comments

ग़ज़ल (बह्र-22/22/22/2)

थोड़ा आगे आने दो ,
मौक़ा उनको पाने दो ।


देखो, भटके फिरते हैं ,
उनको भी समझाने दो ।


कब तक सहना पाबंदी ,
दौर नया दिखलाने दो ।


सबको राहत मिल जाये ,
मौसम ऐसा आने दो ।


फिक्र करो मत दुनिया की ,
छोड़ो यारो जाने दो ।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on March 7, 2017 at 11:30am — 22 Comments

फागुनी हाइकु

1.

आया फागुन
भँवरों की गुंँजार
छाई बहार ।

.
2.

मन मयूर
पलाश हुआ मस्त
भँवरें व्यस्त ।

.
3.

रंगों की छटा
मस्ती भरी उमंग
थिरके अंग ।


4.

आम बौराए
उड़ा गुलाबी रंग
है हुड़दंग ।


5.

दिशा बेहाल
फूलों उड़ी सुगंध
बने संबंध ।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on March 1, 2017 at 7:00pm — 12 Comments

ग़ज़ल बह्र 22/22/22/2 अब नारों से डरते हम

अब नारों से डरते हम,
ख़ामोशी से मरते हम।


ख़ौफ बढ़े जब उसका तो,
तब फिर कहाँ उभरते हम।


ये जीना कैसा जीना,

ग़र्बत में ही मरते हम।


सपने देखे तो कैसे,
जीने से ही डरते हम।


याद करे दुनिया 'आरिफ़',
काम सदा वो करते हम।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on February 26, 2017 at 10:30am — 2 Comments

ग़ज़ल (बह्र-22/22/22/2)

उसने मुझको देखा है,
शायद कुछ तो सोचा है।
मंज़र कुछ ऐसा है जो,
उसकी आँखों देखा है।
मुश्क़िल राहों पे अब वो,
धीरे-धीरे चलता है।
कहता है वो सच को सच
सबको कड़वा लगता है।
उस पे शक़ करना कैसा,
वह तो जाँचा परखा है।
सुख-दुख के मौसम को, वह
ख़ामोशी से सहता है।
बारिश हो जाने से अब,
मौसम बदला-बदला है।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on February 19, 2017 at 3:30pm — 15 Comments

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