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Sushil Sarna's Blog (884)

अँधेरे ...

अँधेरे ...

किसने

स्वर दे दिए

रजनी तुम्हें

तुम तो

वाणीहीन थी

मूक तम को

किसने स्वरदान दे दिया

शून्यता को बींधते हुए

कुछ स्वर तो हैं

मगर

अस्पष्ट से

क्षण

तम के परिधान में

सुप्त से प्रतीत होते हैं

भाव

एकांत के दास हैं

शायद

तुम

इस तम की

वाणीहीनता का कारण हो

पर हाँ

ये भी सच है कि

तुम ही इस का

निवारण भी हो

दे दो प्राण

इन एकांत

अँधेरे को

छू लो इन्हें…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 17, 2017 at 5:18pm — 6 Comments

स्वप्न साधना ....

स्वप्न साधना ....



निस्सीम प्रीत के

मधुपलों में

हो समर्पित

चिर सुख की

मिलन वेला में

खो गयी मैं

और हार के

स्वयं को स्वयं से

अमर जीत

हो गयी मैं



करती रही

क्षण क्षण संचित

एकांत वास में

अपने प्रिय के

प्रीतपाश का



विस्मृत कर

विभावरी के

अंतकाल को

श्वास स्पंदन

की मिलन गंध को

विभावरी के

शेष पलों में

जीती रही मैं



शून्य हुआ

तुम बिन हर पल

श्वास मेरी… Continue

Added by Sushil Sarna on May 15, 2017 at 7:23pm — 9 Comments

स्मृति पृष्ठ ...

स्मृति पृष्ठ ...

रजनी के

श्यामल कपोलों पर

मेघों की बूंदों ने

व्यथित यादों के

पृष्ठों पर जैसे

सान्तवना का

आभासीय श्रृंगार कर डाला

दृग कलशों से

सजल वेदना

प्रीत की

पराकाष्ठा को

चेहरे की लकीरों में

शोभित करती रही

प्राण और देह में

जीवन संघर्ष चलता रहा

किसी को विस्मरण करने के

सभी उपचार

रेत की भित्ति से

ढह गए

थके नयन

आशा क्षणों की

गहन कंदराओं में…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 9, 2017 at 3:59pm — 13 Comments

बोझ ...(250 वीं रचना )

बोझ ...

हम

कहाँ जान पाते हैं

चेतन या अवचेतन में

अटकी हुई कुंठाओं की

मूक भाषा को

उनींदी सी अवस्था में

कुछ सिमटी हुई

आशाओं को

मन में उबलते

एक असीमित बोझ की

पहचान को

साँसों की थकान

अश्रु की व्यथा

और

रुदन के आह्वान को

तुम्हारे

स्पर्श की अनुभूति में लिप्त

क्षणों की

परिणिती के आभास ने

यूँ तो

अंजाने संताप से

मुक्ति का ढाढस दिया

किन्तु…

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Added by Sushil Sarna on May 4, 2017 at 4:59pm — 12 Comments

गर्व ....

गर्व ....

रोक सको तो

रोक लो

अपने हाथों से

बहते लहू को

मुझे तुम

कोमल पौधा समझ

जड़ से उखाड़

फेंक देना चाहते थे

मेरे जिस्म के

काँटों में उलझ

तुमने स्वयं ही

अपने हाथ

लहू से रंग डाले

बदलते समय को

तुम नहीं पहचान पाए

शर्म आती है

तुम्हारे पुरुषत्व पर

वो अबला तो

कब की सबला

बन चुकी ही

जिसे कल का पुरुष

अपनी दासी

भोग्या का नाम देता था

देखो

तुम्हारे…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 28, 2017 at 5:00pm — 6 Comments

यकीं के बाम पे ...



यकीं के बाम पे ...

हो जाता है

सब कुछ फ़ना

जब जिस्म

ख़ाक नशीं

हो जाता है

गलत है

मेरे नदीम

न मैं वहम हूँ

न तुम वहम हो

बावज़ूद

ज़िस्मानी हस्ती के

खाकनशीं होने पर भी

वज़ूद रूह का

क़ायनात के

ज़र्रे ज़र्रे में

ज़िंदा रहता है

ज़िंदगी तो

उन्स का नाम है

बे-जिस्म होने के बाद भी

रूहों में

इश्क का अलाव

फ़िज़ाओं की धड़कनों में

ज़िंदा रहता है

लम्हे मुहब्बत…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 28, 2017 at 2:05pm — 7 Comments

क़ैद रहा ...

क़ैद रहा ...

वादा
अल्फ़ाज़ की क़बा में
क़ैद रहा

किरदार
लम्हों की क़बा में
क़ैद रहा

प्यार
नज़र की क़बा में
क़ैद रहा

इश्क
धड़कनों की क़बा में
क़ैद रहा

कश्ती
ढूंढती रही
किनारों को
तूफ़ां
शब् की क़बा में
क़ैद रहा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 25, 2017 at 5:00pm — 11 Comments

बेशर्मी से ... (क्षणिका )...

बेशर्मी से ... (क्षणिका )

अन्धकार
चीख उठा
स्पर्शों के चरम
गंधहीन हो गए
जब
पवन की थपकी से
इक दिया
बुझते बुझते
बेशर्मी से
जल उठा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 22, 2017 at 8:49pm — 11 Comments

कलियों का रुदन ....

कलियों का रुदन   .... 

रात भर

कलियों का रुदन होता रहा

उनके अश्रु

ओस कणों में

परिवर्तित हो गए

पर तुम

उनके अंतर्मन की वेदना से

अनभिज्ञ रहे भानु

उनकी सिसकियाँ

सन्नाटों में

तुम्हें पुकारती रहीं

मगर तुम न सुन सके

आहों के वेग से

तुम

अनभिज्ञ रहे भानु

सच तुम

बहुत निष्ठुर हो

भला

तुम्हारे रश्मि दूत भी कहीं

उनके मूक बंधन के

कारण का निवारण बन

सकते…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 20, 2017 at 5:39pm — 2 Comments

बस चला जा रहा हूँ...

बस चला जा रहा हूँ ...

मैं

समय के हाथ पर

चलता हुआ

गहन और निस्पंद एकांत में

तुम्हारे संकेत को

हृदय की

गहन कंदराओं में

अपने अंतर् के

चक्षुओं में समेटे

बस चला जा रहा हूँ

मैं

समय के हाथ पर

मधुरतम क्षणों का आभास

स्वयं का

अबोले संकेत में

विलय का विशवास

अपने अंतर् के

चक्षुओं में समेटे

बस चला जा रहा हूँ

मैं

समय के हाथ पर

वाह्य जगत के

कल ,आज और कल के

भेद…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 15, 2017 at 7:16pm — 12 Comments

अभिलाषाओं के ...

अभिलाषाओं के   ... 

थक जाते हैं

कदम

ग्रीष्म ऋतु की ऊषणता से

मगर

तप्ती राहें

कहाँ थकती हैं



अभिलाषाओं की तृषा

पल पल

हर पल

ग्रीष्म की ऊषणता को

धत्ता देती

अपने पूर्ण वेग से

बढ़ती रहती है

ज़िंदगी

सिर्फ़ छाँव की

अमानत नहीं

उस पर

धूप का भी अधिकार है

जाने क्यूँ

धूप का यथार्थ

जीव को स्वीकार्य नहीं



भ्रम की छाया में

यथार्थ के निवाले

भूल जाता है…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 14, 2017 at 3:44pm — 4 Comments

लम्हों की कैद में .....

लम्हों की कैद में ......



लम्हे

जो शिलाओं पे गुजारे

पाषाण हो गए



स्पर्श

कम्पित देह के

विरह-निशा के

प्राण हो गए



शशांक

अवसन्न सा

मूक दर्शक बना

झील की सतह पर बैठ

काल की निष्ठुरता

देखता रहा



वो

देखता रहा

शिलाओं पर झरे हुए

स्वप्न पराग कणों को



वो

देखता रहा

संयोग वियोग की घाटियों में

विलीन होती

पगडंडियों को

जिनपर

मधुपलों की सुधियाँ

अबोली श्वासों…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 12, 2017 at 6:00pm — 6 Comments

मैं चुप रही.....

मैं चुप रही ....

रात के पिछले पहर

पलकों की शाखाओं पर

कुछ कोपलें

ख़्वाबों की उग आई थीं

याद है तुम्हें

तुम ने

चुपके से

मेरे ख्वाबों की

कुछ कोपलें

चुराई थीं

मैं चुप रही

तुमने

अपने स्पर्श से

उनमें बैचैनी का

सैलाब भर दिया

मैं चुप रही

तुमने

मेरी पलकों की

शाखाओं पर

अपने अधरों से

सुप्त तृष्णा को

जागृत किया

मैं चुप रही

रात की उम्र

ढलती रही…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 5:50pm — 14 Comments

व्यर्थ है......

व्यर्थ है......

व्यर्थ है

कुछ भी कहना

बस

मौन रहकर

देखते रहो

दुनिया को

तमाशाई नज़रों से

पूरे दिन

व्यर्थ है

कुछ भी सुनना

अर्थहीन शब्दों के

कोलाहल में

भटकते भावों की

तरलता में लुप्त

संवेदना के

स्पंदन को

व्यर्थ है

कुछ भी ढूंढना

इस नश्वर संसार में

आदि और अंत का

भेद पाने के लिए

स्वयं में

स्वयं से

मिलने का

प्रयास करना …

Continue

Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 3:30pm — 8 Comments

ख़्वाब ...

ख़्वाब ...

नींद से आगे की मंज़िल

भला

कौन देख पाया है

बस

टूटे हुए ख़्वाबों की

बिखरी हुई

किर्चियाँ हैं

अफ़सुर्दा सी राहें हैं

सहर का ख़ौफ़ है

सिर्फ

मोड़ ही मोड़ हैं



न शब् के साथ

न सहर के बाद

कौन जान पाया है

कब आता है

कब चला जाता है

ज़िस्म की

रगों में

हकीकत सा बहता है

अर्श और फ़र्श का

फ़र्क मिटा जाता है

सहर से पहले

जीता है

सहर से पहले ही

मर जाता है…

Continue

Added by Sushil Sarna on March 27, 2017 at 7:06pm — 5 Comments

सुकून .......

सुकून .......

ढूंढता हूँ

अपने सुकून को

स्वयं की

गहराईयों में

छुपे हैं जहां

न जाने

कितने ही

जन्मों के जज़ीरे

अंधे -अक़ीदे

तसव्वुर में तैरते 

कुछ धुंधले से

साये

साँसों के मोहताज़

अधूरी तिश्नगी के

कुछ लम्हे

ज़िस्म पर आहट देते

ख़ौफ़ज़दा

कुछ लम्स



खो के रह गया हूँ मैं

ग़ुमशुदा दौर के शानों पर ग़ुम

अपने सुकून को ढूंढते ढूंढते

क्या

कर सकूंगा…

Continue

Added by Sushil Sarna on March 23, 2017 at 10:00pm — 4 Comments

ई-मौजी ...

ई-मौजी ...

आज के दौर में

क्या हम ई-मौजी वाले

स्टीकर नहीं हो गए ?

भावहीन चेहरे हैं

संवेदनाएं

मृतप्रायः सी जीवित है



अब अश्क

अविरल नहीं बहते

शून्य संवेदनाओं ने

उन्हीं भी

बिन बहे जीना

सिखा दिया है

हर मौसम में

सम भाव से

जीने का

करीना सिखा दिया है

अब कहकहा

ई-मौजी वाली

मुस्कान का नाम है

ई-मौजी सा ग़म है

ई-मौजी से चहरे हैं

ई-मौजी से…

Continue

Added by Sushil Sarna on March 21, 2017 at 5:30pm — 8 Comments

एक शब्द ....

एक शब्द ....

एक शब्द टूट गया

एक शब्द रूठ गया

एक शब्द खो गया

एक शब्द सो गया

एक शब्द आस था

एक शब्द उदास था

एक शब्द देह था

एक शब्द अदेह था

एक शब्द में अगन थी

एक शब्द में लगन थी

एक शब्द जनम था

एक शब्द मरण था

एक शब्द प्यास था

एक शब्द मधुमास था

एक शब्द चन्दन था

एक शब्द क्रंदन था

एक शब्द मोह था

एक शब्द विछोह था



शब्दों की भीड़ थी

हर शब्द में पीर थी

नीर था शब्दों में

शब्द शब्द…

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Added by Sushil Sarna on March 19, 2017 at 4:20pm — 8 Comments

यादें......

यादें......

यादें !

आज पर भारी

बीते कल की बातें

वर्तमान को अतीत करती

कुछ गहरी कुछ हल्की

धुंधलके में खोई

वो बिछुड़ी मुलाकातें

हाँ !

यही तो हैं यादें

ये भीड़ में तन्हाई का

अहसास कराती हैं

आँखों से अश्कों की

बरसात कराती हैं

सफर की हर चुभन

याद दिलाती हैं

जब भी आती हैं

ज़ख़्म कुरेद जाती हैं

अहसासों के शानों पर

ये कहकहे लगाती हैं

ज़हन की तारीकियों में…

Continue

Added by Sushil Sarna on March 18, 2017 at 9:30pm — 6 Comments

चला गया ...

चला गया ...

हवा 

शयन कक्ष के परदों से

खेलती रही

टेबल पर पड़ी मैग्ज़ीन के पन्ने

वायु वेग से

बार बार

फड़फड़ाते रहे

तन्हा से पड़े

काफी के मग

खाली होते हुए भी

अपने में

बहुत कुछ समेटे थे

समेटे थे

अपने अंदर

अकेलेपन से बातें करते

वो क्षण

जो काफी के मग को

अधरों से लगाए

कनखियों से निहारते हुए 

आँखों ने आँखों में

बिताये थे

समेटे थे…

Continue

Added by Sushil Sarna on March 15, 2017 at 10:00pm — 10 Comments

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