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Sushil Sarna's Blog (886)

क्षणिकाएं : ....


क्षणिकाएं : ....

१,
मौत
देती है
ज़िंदगी
मौत को

२.
शूल के
प्रतिबन्ध से
पुष्प
वंचित रहा
स्पर्श से

३.

मयंक
आधी खाई रोटी से
लुभा रहा था
अन्धकार को

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 8, 2018 at 12:27pm — 2 Comments

सुलगन :....

सुलगन :

तुम
अपना तमाम धुआँ
मुझे सौंप
चले गए
मुझे अकेला छोड़

मेरी देह
तुम्हारे धुएँ की गर्मी से
देर तक
ऐसे सुलगती रही
जैसे
गरम सिगरेट की
झड़ी हुई राख से
सुलगती है
कोई
ऐश -ट्रे
देर तक

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 7, 2018 at 4:21pm — 8 Comments

अपने भीतर ...

अपने भीतर ...





थक गया था

बरसों तक

अपने भीतर के एकांत को

जीते जीते

इसीलिये

एक दिन

अपने भीतर की दीवार को तोड़

मैं अदृश्य अदेह में

चला गया



अब जब मैं

स्वयं से बहुत दूर जा चुका हूँ

भूल चुका हूँ

भीतर लौटने की

तमाम राहें

तो अब मुझे

उद्वेलित कर रही हैं

अपने भीतर की

तमाम सुखद स्मृतियाँ

जो कभी गुजारी थी

मैंने

अपने भीतर के एकांत में



अब

सम्पूर्ण सृष्टि की भटकन

मेरा… Continue

Added by Sushil Sarna on May 5, 2018 at 4:39pm — 5 Comments

मजदूर ...

मजदूर ...

अनमोल है वो

जिसे दुनिया

मजदूर कहती है

इसी के बल से

धरातल पर

ऊंचाई रहती है

कहने को

मेरुदंड है वो

धरा के विकास का

आसमानों को छूती

अट्टालिकाएं बनाने वाला

जो

तिनकों की झोपड़ी में रहता है

वो

सृजनकर्ता

मजदूर कहलाता है

हर आज के बाद

जो

कल की चिंता में डूबा रहता है

कल का चूल्हा

जिसकी आँखों में

सदा धधकता रहता है

कम होती…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 4, 2018 at 3:49pm — 6 Comments

कल, आज और कल ....

कल, आज और कल ....

वर्तमान का अंश था

जो बीत गया है कल

अंश होगा वर्तमान का

आने वाला कल

वर्तमान के कर्म ही

बन जाते हैं दंश

वर्तमान से निर्मित होते

सृजन और विध्वंस

वर्तमान की कोख़ में

सुवासित

हर पल के वंश

वर्तमान से युग बनते

युग में कृष्ण और कंस

कागा धुन निष्फल होती

मोती चुगता हंस

चक्र सुदर्शन कर्म का

करे निर्धारित फल

कर्म बनाएं वर्तमान को

कल, आज और कल



सुशील सरना

मौलिक एवं…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 2, 2018 at 4:21pm — 8 Comments

नश्वरता .....

नश्वरता ....

तुम

कहाँ पहचान पाए

उस बुनकर की

आदि और अंत की

अनंत बुनती को

तुम

बुनकर बन

असफल प्रयास करते रहे

विधि के बनाये

आदि और अंत के

नग्न शरीर की

कृति पर

सच-झूठ ,अच्छा-बुरा ,

तेरा-मेरा ,पाप-पुण्य की सजावट से

दुनियावी वस्त्रों को

अलंकृत करने का

मैं

धागा था

तुम्हारे दर्द का

तुम

बुनकर हो कर भी

मुझे न पहचान पाए

जानते हो

उसकी

और…

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Added by Sushil Sarna on May 2, 2018 at 3:32pm — 12 Comments

मोहब्बत ...

मोहब्बत ...

गलत है कि 

हो जाता है 

सब कुछ फ़ना 

जब ज़िस्म 

ख़ाक नशीं 

हो जाता है 

रूहों के शहर में 

नग़्मगी आरज़ूओं की 

बिखरी होती 

ज़िस्म सोता है मगर 

उल्फ़त में बैचैन 

रूह कहाँ सोती है

मेरे नदीम 

न मैं वहम हूँ 

न तुम वहम…

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Added by Sushil Sarna on April 25, 2018 at 7:16pm — 10 Comments

चाँद बन जाऊंगी ..

चाँद बन जाऊंगी ..

कितनी नादान हूँ मैं

निश्चिंत हो गई

अपनी सारी

तरल व्यथा

झील में तैरते

चाँद को सौंपकर

हर लम्हा जो

एक शिला लेख सा

मेरे अवचेतन में

अंगार सा जीवित था

निश्चिंत हो गई

उसे

झील में तैरते

चाँद को सौंपकर

उम्र कैसे फिसल गई

अपने तकिये पर

तुम्हारी गंध को

सहेजते -सहेजते

कुछ पता न चला

निश्चिंत हो गई

अपनी चेतना के जंगल में व्याप्त …

Continue

Added by Sushil Sarna on April 23, 2018 at 11:30am — 10 Comments

निष्कलंक कृति ...

निष्कलंक कृति .....



अवरुद्ध था

हर रास्ता

जीवन तटों पर

शून्यता से लिपटी

मृत मानवीय संवेदनाओं की

क्षत-विक्षत लाशों को लांघ कर

इंसानी दरिंदों के

वहशी नाखूनों से नोची गयी

अबोध बच्चियों की चीखों से

साक्षात्कार करने का

रक्त रंजित कर दिए थे

वासना की नदी ने

अबोध किलकारियों को दुलारने वाले

पावन रिश्तों के किनारे

किंकर्तव्यमूढ़ थी

शुष्क नयन तटों से

रिश्तों की

टूटी किर्चियों की

चुभन…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 4:25pm — 8 Comments

क्षणिकाएं ....

क्षणिकाएं ....

१.
खेल रही थी
सूर्य रश्मियाँ
घास पर गिरी
ओस की बूंदों से
वो क्या जानें
ये ओस तो
आंसू हैं
वियोगी
चाँद के

....................

२.

जीवन
मिटने के बाद भी
ज़िंदा रहता है
स्मृति के गर्भ में
अवशेष बन
श्वासों का

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 12:16pm — 6 Comments

इन्तिजार ....

इन्तिजार ....

दफ़्न कर दिए

सारे जलजले

दर्द के

इश्क़ की

किताब में

ढूंढती रही

कभी

ख़ुद में तुझको

कभी

ख़ुद में ख़ुद को

मगर

तू था कि बैठा रहा

चश्म-ए -साहिल पर

इक अजनबी बन के

मैं

तैरती रही

एक ख़्वाब सी

तेरे

इश्क़ की

किताब में

राह-ए-उल्फ़त में

दिल को

अजीब सी सौग़ात मिली

स्याह ख़्वाब मिले

मुंतज़िर सी रात मिली

यादों के सैलाब मिले

चश्म को बरसात…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 18, 2018 at 12:30pm — 7 Comments

प्रपात...

प्रपात.....

मौन
बोलता रहा
शोर
खामोश रहा
भाव
अबोध से
बालू रेत में
घर बनाते रहे

न तुम पढ़ सकी
न मैं पढ़ सका
भाषा
प्रणय स्पंदनों की
आँखों में


भला पढ़ते भी कैसे
ये शहर तो
आंसूओं का था

घरोंदा
रेत का
ढह गया
भावों को समेटे
आँसुओं के
प्रपात से


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 17, 2018 at 11:41am — 10 Comments

मैं सजनी उसकी हो गयी .....

मैं सजनी उसकी हो गयी .....

निष्पंद देह में

जाने कैसे

सिहरन सी हो गई



सानिध्य में लिप्त श्वासें

अबोध स्पर्शों की

सहचरी हो गयीं



बर्फ़ीले आलिंगन

मासूम समर्पण से

चरम की ओर

बढ़ने लगे



तृप्ति की

अतृप्ति से होड़ हो गई



शोर थम गया

सभी प्रश्न

अपने चिन्हों के घरोंदों में

सो गए



लक्ष्य

स्वप्न मग्न हो गए



असंभव

संभव हो गया

भाव वेग

तरल हो…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 16, 2018 at 2:53pm — 8 Comments

जीवन .....क्षणिकाएं :....

जीवन .....क्षणिकाएं :....

1. 

सूरज

सागर की लहरों पर

तैरती

अपनी रश्मियों के ढेर को

काटता-छाँटता रहा

ताकि

मिल सके

रोशनी

हर किसी को

हर किसी के

नसीब की

.... .... .... .... .... ....

2.

देखा जो

आसमाँ से

उतरते हुए

लाल सूरज को

सागर के आँगन में

घबरा गया

मयंक

कि कहीं

सागर वीचियों पर

उसका अस्तित्व

मेरे अस्तित्व का

हरण न करले

..... .... ....…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 12, 2018 at 2:00pm — 7 Comments

आज फिर ....

आज फिर ....

नहीं जला

चूल्हा

उसके घर

आज फिर

घर से निकला

उदासी में लिपटा

काम की तलाश में

एक साया

आज फिर



लौट आया

रोज की तरह

खाली हाथ

आज फिर

पेट में

क्षुधा की ज्वाला

सड़क पर

काम की ज्वाला

नौकरियों में

आरक्षण की ज्वाला

ज्ञान गौण

प्रश्न मौन

उलझन ही उलझन

माथे पर

चिंताओं को समेंटे

यथार्थ से निराकृत

खाली हाथ

लौट आया

आज…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 10, 2018 at 8:13pm — 10 Comments

चंद हायकू ....

चंद हायकू ....

आँखों की भाषा
अतृप्त अभिलाषा
सूनी चादर

सूनी आँखें
वेदना का सागर
बहते आंसू

साँसों की माया
मरघट की छाया
जर्जर काया

टूटे बंधन
देह अभिनन्दन
व्यर्थ क्रंदन

बाहों का घेरा
विलय का मंज़र
चुप अँधेरा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 9:08pm — 6 Comments

रेगिस्तान में    ......

रेगिस्तान में    ...... 

तृषा

अतृप्त

तपन का

तांडव

पानी

मरीचिका सा

क्या जीवन

रेगिस्तान में

ऐसा ही होता है ?

हरियाली

गौण

बचपन

मौन

माँ

बेबस

न चूल्हा , न आटा ,न दूध

भूख़

लाचार

क्या जीवन

रेगिस्तान में

ऐसा ही होता है ?

पेट की आग

भूख का राग

मिटी अभिलाषा

व्यथित अनुराग

पीर ही पीर

नयनों में नीर

सूखी नदिया

सूने तीर

खाली मटके…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 1:22pm — 11 Comments

यथार्थ ....

यथार्थ ....

कुछ पीले थे

कुछ क्षत-विक्षत थे

कुछ अपने शैशव काल में थे

फिर भी उनका 

शाखाओं का साथ छूट गया



धरा पर पड़े

इन पत्तों की बेबसी पर

हवा कहकहे लगा रही थी



जिसके फैले बाज़ुओं पर

निश्चिंत रहा करते थे

उम्र के पड़ाव पर

उन्हीं बाजुओं से

साथ छूटता चला गया



अब उनका बाबा

एक कंकाल मात्र ही तो था

पीले पत्ते बात को समझते थे

कभी -कभी हवा के बहकावे में

इधर -उधर हो जाते थे

लेकिन…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 3, 2018 at 6:17pm — 7 Comments

इक दूजे के संग ...

इक दूजे के संग ...
 
चक्षु को चक्षु से देखा
करते हमने द्वंद
हाथों में उलझे
हाथ देखकर…
Continue

Added by Sushil Sarna on April 1, 2018 at 1:05pm — 9 Comments

पानी-पानी ...

पानी-पानी ...

ख़ून
ख़ून से ही
कतराता है
मगर
पानी से मिल जाता है
इसीलिये
रिश्ता
ख़ून का
हो जाता है
पानी-पानी
ख़ून के सामने

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on March 29, 2018 at 5:33pm — 12 Comments

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