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प्राण प्रिये

वेदना संवेदना अपाटव कपट

को त्याग बढ़ चली हूँ मैं

हर तिमिर की आहटों का पथ

बदल अब ना रुकी हूँ मैं

साथ दो न प्राण लो अब

चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।



निश्चल हृदय की वेदना को

छुपते हुए क्यों ले चली मैं

प्राण ये चंचल अलौकिक

सोचते तुझको प्रतिदिन

आह विरह का त्यजन कर

चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।



अपरिमित अजेय का पल

मृदुल मन में ले चली मैं

तुम हो दीपक जलो प्रतिपल

प्रकाश गौरव  बन चलो अब

चलने दो मुझे ओ प्राण…

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Added by deepti sharma on July 5, 2012 at 1:00am — 49 Comments

साहस

नीले नभ पर .,

उड़ चले पंछी ,
इक लम्बी उड़ान,
संग साथी लिए ,
निकल पड़े सब,
तलाश में अपनी ,
थी मंजिल अनजान .
अनदेखी राहों में 
जब हुआ सामना, 
था भयंकर तूफ़ान 
घिर गए चहुँ ओर से , 
और फ़स गए वो सब ,
इक ऐसे चक्रव्यूह में ,
अभिमन्यु की तरह ,
निकलना था मुश्किल ,
पर बुलंद…
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Added by Rekha Joshi on July 4, 2012 at 2:56pm — 19 Comments

आँखों से मौत के निशाने निकल पड़े



आँखों से मौत के निशाने निकल पड़े,

दिल पे चोट खाए दिवाने निकल पड़े,



बसती है तेरी चाहत सनम मेरी रूह में,

सूखे लबों की प्यास बुझाने निकल पड़े,



चाहतों के मामले फसानों में कैद है,

इल्जामों का पिटारा दिखाने निकल पड़े,



यादों का तेरे मौसम जब - जब आया है,

अश्को में बीते सारे ज़माने निकल पड़े,



होता है दर्द अक्सर तेरे बदले मिजाज़ से,

आज अपने साथ तुझको मिटाने निकल पड़े,



उल्फत की जिंदगी मैं जी-जी कर हारा हूँ,

समंदर में…

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Added by अरुन 'अनन्त' on July 4, 2012 at 11:00am — 9 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
चेतना के कदम....

ओढ़ शून्य का झीना आँचल
बढ़ चलें अनायास ही...
शून्य में समेट लेने
प्रकृति का अनंत विस्तार
या फिर,
रचने शून्य से ही
सृजन के अनंत तार...  
जिसमे,
वक़्त का दरिया
हो लय,
रहे मात्र क्षण...
मीलों लम्बा फासला,  
मुकाम, 
डग भर,
तत्क्षण...
नील सागर निहित  
रत्न…
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Added by Dr.Prachi Singh on July 3, 2012 at 3:00pm — 17 Comments

माज़रा क्या है? (कुछ सवालो कि दुनिया में चला जाए)

सदा हिजाब में रहते हो माज़रा क्या है?

बड़े रुबाब में रहते हो माज़रा क्या है?





बना दिया आखिर मुझे गुलशन पसंद....

हरेक गुलाब में रहते हो माज़रा क्या है?



हुदूद कोई बना लो हुस्न-ए-शबनम की....

खुले शबाब में रहते हो माज़रा क्या है?



कभी दुआ कभी मुराद में महसूस किया....

कभी अज़ाब में रहते हो माज़रा क्या है?



शकाफत भरा है तुम्हारा कोहिनूर बदन....

हया-ओ-आब में रहते हो माज़रा क्या है?



जबसे दीदार…

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Added by Shayar Raj Bajpai on July 3, 2012 at 12:48pm — 7 Comments

वक़्त-ए-फुरकत

मरासिम उनसे था मेरा सूफियाना सा

गा भी लेते थे हम

सुना भी लेते थे हम

इबादत उनकी किया करते थे

खुदा से रूठ जाते थे

मना भी लेते थे हम

वक़्त-ए-फुरकत

उनसे वादा किया था

एक कतरा न गिरेगा कभी

ये आब-ए-जमजम

मेरी आँखों से

तो पाकीजा आब से भरे ये प्याले

रोज भरते तो हैं

पर छलकते कभी नहीं

और लोग हमें संगदिल सनम कहते हैं

ये कैसा वादा लेकर वो गए हैं

उस दिन से लेकर आज तक…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 2, 2012 at 5:37pm — 5 Comments


प्रधान संपादक
शिल्पकार (लघुकथा)

जिस प्रकार के भवन की कल्पना बादशाह ने की थी यह भवन उससे भी कहीं अधिक सुन्दर बना था, जिसकी भव्यता देखकर बादशाह की आँखें चौंधिया सी गईं थीं. चहुँ ओर भवन निर्माण करने वाले शिल्पकार की मुक्तकंठ से प्रशंसा हो रही थी. जिसे सुनकर शिल्पकार भी फूला नहीं समा रहा था. लेकिन तभी अचानक बादशाह ने शिल्पकार के दोनों हाथ काट देने का आदेश दे दिया ताकि शिल्पकार पुन: ऐसी…

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Added by योगराज प्रभाकर on July 2, 2012 at 11:47am — 31 Comments

वो बच्चा...

वो बच्चा

बीनता कचरा

कूड़े के ढेर से

लादे पीठ पर बोरी;

फटी निकर में

बदन उघारे,

सूखे-भूरे बाल

बेतरतीब,

रुखी त्वचा

सनी धूल-मिटटी से,

पतली उँगलियाँ

निकला पेट;

भिनभिनाती मक्खियाँ

घूमते आवारा कुत्ते

सबके बीच

मशगूल अपने काम में,

कोई घृणा नहीं

कोई उद्वेग नहीं

चित्त शांत

निर्विचार, स्थिर;

कदाचित

मान लिया खुद को भी

उसी का एक हिस्सा

रोज का किस्सा,

चीजें अपने मतलब की

डाल बोरी में

चल पड़ता…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on July 2, 2012 at 9:24am — 20 Comments

चलो जी चलो कलम उठाएं.चलो जी चलो कलम उठाएं.

चलो  जी चलो कलम उठाएं;चलो  जी चलो कलम उठाएं.

लिख के कविता लेख कहानी,हम लेखक बन जाएं

तदुपरांत वो बकरा ढूंढें जिसको लिखा सुनाएं

चलो  जी चलो कलम उठाएं.चलो  जी चलो कलम उठाएं.

-०-०-०--०-०-०-०-०-०-०-०-

कागज़ कलम ; डाक खर्चे की ;पहले युक्ति लगाएं,

लिख लिख रचनाएँ अपनी ;अख़बारों को भिजवाएं .…

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Added by DEEP ZIRVI on July 2, 2012 at 8:32am — 6 Comments

ढूँढने को ख़ुशी क्या क्या ख़याल करते हो

हुश्न को माह कहते हो कमाल करते हो

आदमी को खुदा बुत को जमाल करते हो



चश्म में डूब कर उनका जबाब देते हैं

मौन पलकें झुका के जो सवाल करते हो



नोट में वोट दे ईमान बेच कर तुम ही

बात सुनते नहीं नेता बबाल करते हो



इश्क की आग में सूखा जला हुआ तन्हा

तुम उसे दीद दे ताज़ा निहाल करते हो



है हकीकत जमाने की तुझे पता लेकिन

ढूँढने को ख़ुशी क्या क्या ख़याल करते हो



छोड़ के हाथ जिसने तोड़ दिया हर रिश्ता

साथ…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 1, 2012 at 3:38pm — 6 Comments

कटाक्ष ....

आल इज  वेल इन बोर-वेल......!!!!
--------------------------------------------------
फिर बोर-वेल ने सेना और इलेक्ट्रोनिक मिडिया को काम पे लगा दिया.
इसके  इजाद करने वाले ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके बोर-वेल को प्रसिद्धि की ऐसी  खुराक नसीब होगी.
पहले भी सरकारी दफ्तरों की कृपा से बोर-वेल ने काफी नाम कमाया है.धरती की छाती पर जितने बोर-वेल नहीं गड़े होंगे उससे कई गुण ज्यादा तो पेपरों की शान बढ़ा रहें है.
इससे जनता को पानी मिला हो या…
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Added by AVINASH S BAGDE on July 1, 2012 at 3:30pm — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
रणभेरी

वो देखो सखी

फिर रक्ताभ हुआ  नील गगन 

बढ़ रही हिय की धड़कन

विदीर्ण हो रहा हैमेरा  मन  

बाँध  दो इन उखड़ी साँसों को ,

अपनी श्यामल अलकों से 

भींच लूँ कुछ भी ना देखूं

 मैं अपनी इन पलकों से  

झील के जल में भी देखो

लाल लहू की है  ललाई

कैसे तैर रही है देखो

म्रत्यु  दूत   की परछाई 

थाम लो मुझको बाहों में

जडवत हो रही हूँ मैं 

दे दो सहारा काँधे का

सुधबुध खो रही हूँ…

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Added by rajesh kumari on July 1, 2012 at 10:37am — 18 Comments

मिरे खाबों के शबिस्ताँ

ये मेरी लिखी पहली ग़ज़ल है जो मैंने पूरे प्रयास से बह्र में लिखने की कोशिश की है.

  आप सभी जानकार लोगों से गुज़ारिश है कि तब्सिरा करके खामियां बताएं. आप सब का आभार. :)

  इसका वज़न कुछ ऐसा गिना है मैंने.

  1222/2122/1222/122

   

    मिरे खाबों के शबिस्ताँ में तेरा ही असर है

    गुलों की ख़ुश्बू तिरी नूर से रोशन नज़र है !



    कहाँ होती बात वो यूँ समंदर की अदा में

    सदफ से पूंछो…
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Added by Raj Tomar on June 30, 2012 at 11:00pm — 3 Comments

"जिंदगी से रूबरू हम"

अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,

क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम|



जज्बातों कि लाश को सीढियाँ बना मंजिल तो पा ली,

पर क्या अब  खुद  को  इन्सान  कह  सकते हैं  हम|



अपनों की भीड़ में, अपनों को ढूंढ़ कर देख…

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Added by savi on June 30, 2012 at 8:02pm — 14 Comments

देखना तुझको मुसीबत तो नहीं

देखना तुझको मुसीबत तो नहीं

है मुहब्बत ये शरारत तो नहीं



मर मिटे उसके बदन पर वो मगर

चाहना बस हुश्न चाहत तो नहीं



हार बैठा हूँ जिगर पर ये बता

गैर से तुझको मुहब्बत तो नहीं



छोड़ आया हूँ सभी दुनिया-जहाँ

अब तुझे मुझसे शिकायत तो नहीं



तोड़ के रिश्ते मिले किसको सुकूं

इश्क चाहत है बगावत तो नहीं



देख कर क्यूँ आह भरते हो सनम

इश्क अंदाजे अदावत तो नहीं



खेलना दिल से नहीं आता मुझे…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 30, 2012 at 2:30pm — 4 Comments

सलामे मोहब्बत

तू अगर दूर जाकर, हमसे बेखबर है..

तो हम भी खुश रहेंगे, ये तेवर है..०० 
.
मांगी एक दुआ, तो तू मिल गई..
बने एक दुनिया जो पल में उजड़ गई.
सुने पन अब जो मंजर है..
तो हम भी खुश रहेंगे, ये तेवर है..०१ 
.
दर्द का क्या वो सहा भी बहुत..
अशुओ क सहारे वो बहा भी बहुत..
पूरी करले जो बाकि कसर है ..
तो हम भी खुश रहेंगे, ये तेवर है..०२ 
याद न आई, या मुझे भुला…
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Added by Pradeep Kumar Kesarwani on June 30, 2012 at 10:55am — 7 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २३

बड़े प्रेम की छोटी सी प्रेम कहानी...

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परछाईयों के पीछे आज फिर नज़र की रहलत (प्रस्थान) हुई, रोशनियों की शाहराह (चौड़ी राह) पे हम कुछ यूँ सफरपिजीर (सफर पे निकले) हुए. रात की सन्नाटगी, दरख्तों से हवाओं की सरगोशी (हौले से कानों में बात करना), चाँदनी का सीमाब (चांदी जैसा) सा पिघलता बदन, और फज़ा में उसकी यादों का लहराता आँचल- मैं गोया सफर-ए-इरम (इक काल्पनिक स्वर्ग की यात्रा) की ओर रवाँ होने को था.

 

ज़माना गुज़र गया है…

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Added by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:27pm — 3 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २२

दिल एक रेलवे स्टेशन सा हो गया है......

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दिल एक रेलवे स्टेशन सा हो गया है. वो भी किसी छोटे से कसबे का जहाँ दिन में कुछ गाडियां ही आती जाती है, और दिन भर एक वीरानी सी पसरी होती है पटरियों पे. सारा दिन जैसे ३ बजे की लोकल का और शाम की मुंबई वाली पैसेंजर का इन्तेज़ार रहता है. थोड़ी देर की धड़कन, कुछ लम्हे की रौनक, कुछ मिनटों की भाग दौड़, और फिर मीलों लंबे समय का न कटने वाला साथ.

 

ज़िंदगी में सवारियों की तरह…

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Added by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:24pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २१

आज का दिन भी...

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आज का दिन भी फंस गया है मोटरगाड़ियों की ट्राफिक में. आहिस्ता आहिस्ता रेंग सा रहा है धूप की बरसाती के नीचे, मैं साफ़ देखा रहा हूँ अपने ऑफिस की खिडकी पे खड़ा. लोग किधर और क्यूँ भागते रहते हैं अपने अपने घरों से निकल कर, मैं इस ख्याल को किसी शायर के तखय्युल की हवा देता हूँ, कि आखिर क्यूँ? क्यूँ शिताबी सी मची रहती है ज़िंदगी में, कि लोगों के पास हर वक्त वक्त क्यूँ नहीं होता जबकि वक्त के बगैर कोई भी वक्त…

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Added by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:22pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- १८

प्रेम के उद्भव और विलय का यह कैसा दंश है......

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समूची सृष्टि में एक ही प्रेम का गीत गुंजायमान है. मेरे और तुम्हारे हृदयों में जो प्रेम धड़क रहा है उसमें भी उसी एक मौलिक प्रेम का स्पनंदन विद्यमान है. सारा अस्तित्व आकर्षणों और विकर्षणों के एक हीगणित से चलायमान है. प्रेम एक ऐसा वर्तुल है जिसका केंद्र कल्पना में ही अस्तित्वमान है. ये वर्तुल जब असीम होके निराकार हो जाता है तो केंद्र की भी सत्ता खो जाती है और प्रेम के…

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Added by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:14pm — No Comments

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