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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३५

शब्दों में जो लिखा है....

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शब्दों में जो लिखा है

अपना भोगा यथार्थ गढ़ा है

तराशी हैं मन की सभी छोटी बड़ी बातें

जो कभी किसी कोने में दुबका सिकुड़ा है

और जो कभी आकाश से भी उन्नत और बड़ा है

शब्दों में लिख लिख के सश्रम

उसके ही परिहास और वंचनाओं को गढ़ा है

 

बदल गए अपनों की व्यथाएं

आँखों से झांकती क्लांत आशाएं

संबंधों की अपरिभाषित सीमाएं

कुछ करने न करने की समस्त द्वुविधाएं

भरे पूरे पेड़ पे जैसे कुछ क्षीण शाखाएं

ये मन तो कई बार

हारा और लड़ा है  

 

शब्दों में जो लिखा है

अपना भोगा यथार्थ गढ़ा है

 

कहाँ समझी गईं मंशाएं जो अभिप्रेय थीं

लाख चाहा स्पष्ट करूँ सब कुछ

पर बाधाएं अजेय थीं

तुमसे क्या कहता हृदय की अभिलाषाएं

जो स्वयं से ही अज्ञेय थीं..

तुमने जो कुछ भी पढ़ा है लिखावटों को पढ़ा है

 

शब्दों में जो लिखा है

अपना भोगा यथार्थ गढ़ा है

 

अब न हो तुम न मैं एक दूसरे के सम्मुख

न रहा संबंधों का कोई सुख

और न ही कोई दुःख

जीवन की नदी तो बहती रहती है

अनवरत, अबाध

कभी शांत, उदासीन, कभी चंचल, उन्मुख

अर्थप्रगल्भता से मौन की यात्रा संपन्न हुई लेकिन

सोचने को पूरा का पूरा अतीत पड़ा है

 

शब्दों में जो लिखा है

अपना भोगा यथार्थ गढ़ा है

 

यूँ तो विस्मृत हो गए थे

सभी पदचाप और पदचिह्न

और स्मृतियों के अरण्य से जा चुके थे

प्रणयों के हिरण, असहाय उद्विग्न

भग्न हो चुका था तुम्हें पाने का वो स्वप्न

जो कभी प्राणवान था और अभिन्न

पर आज न जाने क्यूँ प्रतिगमन कर

गगन पर तुम्हारे मुखमंडल का तेज उमड़ा है..

 

शब्दों में जो लिखा है

अपना भोगा यथार्थ गढ़ा है

 

© राज़ नवादवी

लेबरनेट गेस्टहाउस, बंगलूरू, प्रातःकाल ०७.००-०८.२०, ०८/०७/२०१२

 

 

 

 

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