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अक्षर का संसार

कभी कभी शब्द आकार नहीं लेते

और मैं बह जाती हूँ अक्षरों में

सुनो ध्यान से ये क्या कहते है ?

खामोश हैं ???

नहीं इनमे कलकल का नाद…

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Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 4, 2013 at 8:36pm — 9 Comments

माँ का दर्द

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Added by vijayashree on April 4, 2013 at 7:00pm — 15 Comments

खुशबू ............

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक - 29 में प्रस्तुत गीत का सस्वर गायन ..........सीमा …

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Added by seema agrawal on April 4, 2013 at 5:00pm — 8 Comments

दाइज ऐसा देना बाबुल

दाइज ऐसा देना बाबुल

जिससे तन-मन जले नहीं

दर्द-वेदना के सिक्‍कों से

जो बेबस हो तुले नहीं

ना गुलाब की कलियां न्‍यारी

स्‍वर्णहार ना चूड़मणि

नहीं मुलायम गद्दी, सोफे

नहीं रेशमी लाश बुनी

देना बाबुल ऐसा ताला

जो बुद्धि पर लगे नहीं

अम्‍लान रूढि़यों की ठोकर से

जो बेदम हो खुले नहीं

लाड़-प्‍यार चाहे ना देना

ना लेना मेरी पोथी

जनमजली ना करना मुझको

शिक्षा बिन सब हैं रोती

देना…

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Added by राजेश 'मृदु' on April 4, 2013 at 4:24pm — 9 Comments

चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें- तृतीय खंड (1)

 तृतीय  खंड 

पाठक के लिए: 

हमारे काव्य नायक 'ज्ञानी' की पर्वचन  श्रृंखला  जारी है। ज्ञानी का लक्ष्य मानवीय अनुभूति से उपजे ज्ञान को जन मानस तक पहुँचाना। प्रस्तुत खंड में वह गंगा उत्पुति की कथा बयान कर रहा है। गंगा की उत्पुति विष्णु हृदय से मानी जाती है। वह विष्णु हृदय क्या है - ज्ञानी इस की विवेचना के लिए प्रयतन रत है।
प्रस्तुत कथा और इस का ऐसा पठन शायद किसी और…
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Added by Dr. Swaran J. Omcawr on April 4, 2013 at 4:23pm — 11 Comments

अतुकान्त

गद्य के खंड रचे

प्रवाह भर भर के

इतना प्रवाह के

कविता टिक न सकी

पल भर को

उड़ गयी कहीं दूर

बहुत दूर

कवियों की खोज मे



और लेखक इतराता है

अतुकान्त का बोध कराता

स्वयं को

गुपचुप मुस्काता

सोचता है

कौन जानता है

कविता का आंतरिक सौंदर्य

बाहरी परिवेश

इंफ्रास्ट्रकचर ठीक

मतलब सब ठीक

अंदर जा के

किसको क्या मिला है

लय छन्द ताल

व्यर्थ हैं भाव के बिना

फिर एक मुस्कान भरता है

देखा हो गया न…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on April 4, 2013 at 2:09pm — 10 Comments

फाग का महीना. ( मनहरण घनाक्षरी पर एक प्रयास)

ढाक अमलतास पे, आ गयी बहार देखो,

सेमर भी कुसुमित, फाग का महीना है |

 

सारे रंग लाल-लाल, फूलों पर दिखाई दें,

कुहु-कुहू कोयल की, राग का महीना है |

 

सूरज का ताप तन, बदन झुलसायेगा,

तपन दहन…

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Added by Ashok Kumar Raktale on April 4, 2013 at 2:00pm — 16 Comments

दोहे एक प्रयास

नयन झुकाए मोहिनी, मंद मंद मुस्काय ।

  रूप अनोखा देखके, दर्पण भी शर्माय ।।

नयन चलाते छूरियां, नयन चलाते बाण ।

नयनन की भाषा कठिन, नयन क्षीर आषाण ।।

दो नैना हर मर्तबा, छीन गए सुख चैन ।…

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Added by अरुन 'अनन्त' on April 4, 2013 at 12:30pm — 17 Comments

वक़्त बदल देता है दिल की भावनाओ को भी

वक़्त बहता रहा

कभी पानी की तरह

कभी हवा के मानिद

हम भी बहते रहे बहाव में इसके  

कभी फूल बनकर

कभी धूल बनकर .....

कब जिदगी के उस छोर से हम

इस छोर पर आ गये…

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Added by Sonam Saini on April 4, 2013 at 11:30am — 7 Comments

आकाशीय बिजली !!!

आकाशीय बिजली !!!

 

लप-लप चमकि-चमकि

रहि रहि कुलेल करत

इत उत धावति बदरा मा

कड़क-कड़क कर

मेघ धमकावत।

बालक-नारि हृदय धड़कावत

बालक जायें छिपे अंचरा मा।

नारि मन धक-धक, रहा न जाये

पाए सहारा और अपनापन

छटपटाय झट गले लगावत।

आंखें मींच लई जोरों से

कसमसात और लजावति।

बिजुरी तनिक समझि न पावति,

गिरत-पड़त छपकि-छपकि

लाज-शर्म न झपकि-झपकि।

नयनों से ज्यों तीर चलावति

सर सर सर सर सरर…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 4, 2013 at 10:01am — 12 Comments

शादी से पहले – शादी के बाद

प्रो. सरन घई, संपादक – “प्रयास”, संस्थापक, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

शादी से पहले हमको कहते थे सब आवारा,

शादी हुई तो वो ही कहने लगे बेचारा।

 

कुछ हाल यों हुआ है शादी के बाद मेरा,

जैसे गिरा फ़लक से टूटा हुआ सितारा।

 

सब लोग पूछते हैं दिखता हूँ क्यों दुखी मैं,

कैसे बताऊँ उनको, बीवी ने फिर है मारा।

 

शादी हुई है जब से, तब से ये हाल मेरा,

जिस ओर खेता नैया, खो जाता वो किनारा।

 

फिरता था तितलियों…

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Added by Prof. Saran Ghai on April 4, 2013 at 1:07am — 9 Comments

हास्य घनाक्षरी

हास्य घनाक्षरी

 

आप तो पहाड़ हम माटी भुरभुरी वाली

धूल न हो जाएँ कहीं , गले न लगाइए

आपका शरीर है ये तन से अमीर बड़ा

दुबले गरीब हम रहम तो खाइए

माटी वाला घर मेरा और द्वार छोटा बना

टूट नहीं जाए ज़रा धीरे धीरे आइए

फूल थी जो आप कद्दू हो गयी हो आजकल 
ऐसा क्या है खाया ज़रा हमें भी बताइए

 

संदीप पटेल “दीप”

Added by SANDEEP KUMAR PATEL on April 3, 2013 at 11:30pm — 16 Comments

"सकारात्मक सोच"

इस जीवन में लगा रहेगा ,

दुःख-सुख हार जीत!

दृढ़ता से बढ़ते रहो ,

गाओ विजय का गीत !!

अविराम बढ़ते चलो ,

भर लो अन्दर शक्ति भरपूर…

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Added by ram shiromani pathak on April 3, 2013 at 9:46pm — 17 Comments

तुम बिन

प्यास है

लरजते होंठों में

आज भी वही

जब कहा था तुमसे

मैं प्यार करता हूँ

और देखा था

खुद को

तुम्हारी आँखों से

पागल सा

दीवाना सा

कुछ पल बाद

वो झुकीं

और इक मीठी सी सदा

हट पागल

जाता हूँ

आइने के सामने

देखने वही

अक्स

लेकिन धुंधला

हो जाता है

मुझे याद है अब भी

जब तुमने

झांका था

मेरी आँखों में

थामा था

सिरहन भरा

मेरा…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on April 3, 2013 at 9:00pm — 22 Comments

एक ग़ज़ल

क्या वजह क्या वजह कहर बरपा रहे

मेहरबां - मेहरबां से नजर आ रहे



ये दुपट्टा कभी यूँ सरकता न था


आज हो क्या गया यूँ ही सरका रहे



चूडियाँ यूँ तो बरसों से ख़ामोश थी


बात क्या है हुजूर आज खनका रहे



यूँ तो चेहरे पे दिखती थीं…

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Added by VISHAAL CHARCHCHIT on April 3, 2013 at 6:30pm — 37 Comments

झुलसाई ज़िन्दगी ही तेजाब फैंककर ,

 

 Pakistani Shiite Muslim women. Credit: Getty Images

 

झुलसाई ज़िन्दगी ही तेजाब फैंककर ,

दिखलाई हिम्मतें ही तेजाब फैंककर .

अरमान जब हवस के पूरे न हो सके ,

तडपाई  दिल्लगी से तेजाब फैंककर .

ज़ागीर है ये मेरी, मेरा ही दिल जलाये ,

ठुकराई मिल्कियत से तेजाब फैंककर .

मेरी नहीं बनेगी फिर क्यूं बने किसी की,

सिखलाई बेवफाई तेजाब फैंककर .

चेहरा है चाँद तेरा ले दाग भी उसी से ,

दिलवाई निकाई ही तेजाब…

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Added by shalini kaushik on April 3, 2013 at 4:15pm — 9 Comments

ग़ज़ल : रदीफ़ों काफियों को चाह पर अपने चलाता है.

बहर : हज़ज मुसम्मन सालिम

वज्न: १२२२, १२२२, १२२२, १२२२

रदीफ़ों काफियों को चाह पर अपने चलाता है,

बहर के इल्म में जो रोज अपना सिर खपाता है,

हुआ है सुखनवर* उसकी कलम करती ग़ज़लगोई*,

सभी अशआर के अशआर वो सुन्दर बनाता है,

कभी वो लाम* में जागे कभी वो गाफ़* में सोये,

सुबह से शाम तक बस तुक से अपने तुक भिड़ाता है,

मुजाहिफ* को करे सालिम, करे…

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Added by अरुन 'अनन्त' on April 3, 2013 at 2:30pm — 15 Comments

दोहे

विधना तेरे रूप में, आया कहां निखार

बेशकीमती ब्‍लीच औ, लोशन मले हजार

मौनी बाबा टल्‍ली हैं, आफत में युवराज

घूर रहा जो ताज को, गुजराती परबाज

शहर गाल में गांव हैं, कोलतार में पैर

बेदम होकर हांफती, सुबह-शाम की सैर

ट्रैफिक की हर चीख पर, सिग्‍नल मारे आंख

रेल-बसों में चुप खड़े, सहमे डैने, पांख

अनशन पर कोई अड़ा, कोई हुआ मलंग

इटली वाले रंग में, किसने घोला भंग

नदी रही नाला हुई, किसपर नखरे नाज…

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Added by राजेश 'मृदु' on April 3, 2013 at 12:54pm — 8 Comments

ये तो होना ही था

जिन्दगी में ये सब होना ही था

हर ख़ुशी की चाह मे रोना ही था

रिश्ते नाते प्यार वादों का महल

टुटा खंडहर एक दिन होना ही था

दूसरों के बोझ ढोते रह गए

अपने गम का बोझ भी ढोना ही था…

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Added by Dr.Ajay Khare on April 3, 2013 at 12:00pm — 3 Comments


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जहरीले चूहे(लघुकथा )

कमला बाई को सुबह सुबह दरवाजे पर बुरी हालत में  देख रीना का माथा ठनका , एक्सीडेंट के कारण हास्पिटल में  भर्ती  हुई कल ही तो एक हफ्ते बाद वापस  लौटी है ।सर पर पट्टी गले की हँसली  टूटने पर पीछे हाथ कर बाँधी हुई पूरी छाती पर पट्टी ,आँखे सूजी हुई देखते ही फफक- फफक कर रो पड़ी कमला रीना के बहुत बार पूछने पर बताया "मेमसाब मेरी पट्टी देखकर मेरे  दो साल के बच्चे ने जो…

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Added by rajesh kumari on April 3, 2013 at 10:08am — 19 Comments

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